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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 40/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - बृहस्पतिः, विश्वे देवाः
छन्दः - त्रिपदार्षी गायत्री
सूक्तम् - मेधा सूक्त
या नः॒ पीप॑रद॒श्विना॒ ज्योति॑ष्मती॒ तम॑स्ति॒रः। ताम॒स्मे रा॑सता॒मिष॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया। नः॒। पीप॑रत्। अ॒श्विना॑। ज्योति॑ष्मती । तमः॑। ति॒रः। ताम्। अ॒स्मे। रा॒स॒ता॒म्। इष॑म् ॥४०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः। तामस्मे रासतामिषम् ॥
स्वर रहित पद पाठया। नः। पीपरत्। अश्विना। ज्योतिष्मती । तमः। तिरः। ताम्। अस्मे। रासताम्। इषम् ॥४०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 40; मन्त्र » 4
विषय - वह प्रेरणा
पदार्थ -
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! अस्मे हमारे लिए (ताम्) = उस (इषम्) = हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को (रासताम्) = प्राप्त कराओ, (या) = जो प्रेरणा (न:) = हमें (पीपरत्) = पार प्राप्त कराए, जिस प्रेरणा को सुनते हुए हम भवसागर से पार हो सकें। २. उस प्रेरणा को हम इस प्राणसाधना द्वारा प्राप्त करें जोकि (ज्योतिष्मती) = प्रकाशमयी है और (तमः तिर:) = अन्धकार को हमसे तिरोहित कर देती है।
भावार्थ - प्राणसाधना से अशुद्धि का क्षय होने पर इदय परिशुद्ध होता है। इस परिशुद्ध हृदय में हम प्रभु-प्रेरणा को सुन पाते हैं। यह प्रभुप्रेरणा प्रकाशमयी होती हुई, अन्धकार को दूर करती हुई, हमें भवसागर से पार प्राप्त कराए।
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