अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - विश्वदेवाः
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
यस्य॑ ते॒ वासः॑ प्रथमवा॒स्यं॑१ हरा॑म॒स्तं त्वा॒ विश्वे॑ऽवन्तु दे॒वाः। तं त्वा॒ भ्रात॑रः सु॒वृधा॒ वर्ध॑मान॒मनु॑ जायन्तां ब॒हवः॒ सुजा॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । ते॒ । वास॑: । प्र॒थ॒म॒ऽवा॒स्य᳡म् । हरा॑म: । तम् । त्वा॒ । विश्वे॑ । अ॒व॒न्तु॒ । दे॒वा: । तम् । त्वा॒ । भ्रात॑र: । सु॒ऽवृधा॑ । वर्ध॑मानम् । अनु॑ । जा॒य॒न्ता॒म् । ब॒हव॑: । सुऽजा॑तम् ॥१३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य ते वासः प्रथमवास्यं१ हरामस्तं त्वा विश्वेऽवन्तु देवाः। तं त्वा भ्रातरः सुवृधा वर्धमानमनु जायन्तां बहवः सुजातम् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । ते । वास: । प्रथमऽवास्यम् । हराम: । तम् । त्वा । विश्वे । अवन्तु । देवा: । तम् । त्वा । भ्रातर: । सुऽवृधा । वर्धमानम् । अनु । जायन्ताम् । बहव: । सुऽजातम् ॥१३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 5
विषय - कई भाई
पदार्थ -
१. (यस्य ते) = जिस तेरे (प्रथमवास्यम्) = धारण करने योग्यों में प्रथम; अर्थात् उत्तम (वास:) = वस्त्र को (हरामः) = प्राप्त करते हैं, (तं त्वा) = उस तुझको (विश्वेदेवा:) = सब देव (अवन्तु) = रक्षित करें। वस्त्र उत्तम हों, दीर्घायु के लिए किसी भी प्रकार से विघातक न हों। सूर्य-किरणों के प्रभाव को व वायु-प्रवेश को एकदम रोक देनेवाले न हों। २. (सुजातम्) = इसप्रकार उत्तम विकासवाले (वर्धमानम्) = दिन प्रतिदिन बढ़ते हुए (तं त्वा अनु) = उस तेरे पश्चात् (सुवृधा) = उत्तम वृद्धिवाले (बहवः) = बहुत (भातरः)= भाई (जायन्ताम्) = उत्पन्न हों। जब प्रथम बालक का ठीक विकास हो जाए तभी दूसरे बालक का उत्पन्न होना ठीक है। 'सुजातम् अनु' शब्दों से यह भाव बहुत अच्छी प्रकार संकेतित हो रहा है।
भावार्थ -
वस्त्र इसप्रकार के हों कि सूर्यादि देवों के साथ निरन्तर सम्पर्क बना रहे। ऐसे ही वस्त्र स्वास्थ्य वर्धक होते हैं।
विशेष -
सूक्त के प्रथम मन्त्र में गोघृत से अग्निहोत्र का विधान है, इसप्रकार गोघृत को दीर्घायुष्य के लिए आवश्यक बताया है। द्वितीय मन्त्र में 'सौम्य वेश' का संकेत है। तृतीय मन्त्र में गोपालन व क्रियाशीलता द्वारा धनार्जन को दीर्घ जीवन का साधक बताया गया है। चतुर्थ मन्त्र में शरीर को पाषाणतुल्य दृढ बनाने का उपदेश है। पाँचवें मन्त्र में सब देवों की अनुकूलता की प्रार्थना करके दो सन्तानों के बीच में कम-से-कम तीन-चार वर्ष का अन्तर होना आवश्यक बताया गया है। अब अगले सूक्त में घर को, आनेवाली आपत्तियों से, बचाने के उपायों का निर्देश है। इन विपत्तियों का नष्ट करनेवाला 'चातन' ही सूक्त का ऋषि है'चातयति नाशयति ।
यह संकल्प करता है कि -