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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२९

    त्वं हि स्तो॑म॒वर्ध॑न॒ इन्द्रास्यु॑क्थ॒वर्ध॑नः। स्तो॑तॄ॒णामु॒त भ॑द्र॒कृत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । स्तो॒म॒ऽवर्ध॑न: । इन्द्र॑ । असि॑ । उ॒क्थ॒ऽवर्ध॑न: ॥ स्तो॒तृ॒णाम् । उ॒त । भ॒द्र॒ऽकृत् ॥२९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं हि स्तोमवर्धन इन्द्रास्युक्थवर्धनः। स्तोतॄणामुत भद्रकृत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । हि । स्तोमऽवर्धन: । इन्द्र । असि । उक्थऽवर्धन: ॥ स्तोतृणाम् । उत । भद्रऽकृत् ॥२९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 29; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (त्वं हि) = आप निश्चय से (स्तोमवर्धनः) = स्तुतिसमूहों से हृदयों में वृद्धि को प्राप्त होनेवाले हैं। स्तोता जितना-जितना स्तवन करता है, उतना-उतना अधिकाधिक आपके प्रकाश को हदय में पाता है। आप (उक्थवर्धनः असि) = वेदसूक्तों से-ज्ञान की वाणियों से-जानने योग्य हैं। जितना-जितना ज्ञान बढ़ता है, उतना-उतना हम आपके समीप होते हैं २. (उत) = और हे प्रभो! आप (स्तोतृणां भद्रकृत्) = स्तोताओं का सदा कल्याण करते हैं।

    भावार्थ - स्तुतिसमूहों से हम हृदय में प्रभु का वर्धन करें। ज्ञान की वाणियों से प्रभु के समीप और समीप हों। प्रभु स्तोताओं का कल्याण करते ही हैं।

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