अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-२९
मा॒याभि॑रु॒त्सिसृ॑प्सत इन्द्र॒ द्यामा॒रुरु॑क्षतः। अव॒ दस्यूँ॑रधूनुथाः ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒याभि॑: । उ॒त्ऽसिसृप्सत: । इन्द्र॑ । द्याम् । आ॒ऽरुरु॑क्षत: ॥ अव॑ । दस्यू॑न् । अ॒धू॒नु॒था॒: ॥२९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
मायाभिरुत्सिसृप्सत इन्द्र द्यामारुरुक्षतः। अव दस्यूँरधूनुथाः ॥
स्वर रहित पद पाठमायाभि: । उत्ऽसिसृप्सत: । इन्द्र । द्याम् । आऽरुरुक्षत: ॥ अव । दस्यून् । अधूनुथा: ॥२९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
विषय - मायाभिः उत् सिसृप्सतः दस्यून् [अवाधूनुथा:]
पदार्थ -
१. विषय-वासनाओं की कामनाएँ नाना प्रकार से धोखा देकर हमारे अन्दर प्रवेश कर जाती हैं और हमारे मस्तिष्क में अपना स्थान बना लेती हैं। उस समय इनका पराभव बड़ा कठिन हो जाता है, परन्तु हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (मायाभिः) = छल-कपटों के द्वारा (उत्सिसृप्सतः) = हमारे अन्दर ऊर्ध्वगति की कामनावाली होती हुई और (द्याम् आरुरुक्षत:) = मस्तिष्करूप धुलोक में आरुढ़ होती हुई इन (दस्यून्) = विनाशक वासनावृत्तियों को (अव अधूनुथा:) - अधोमुख करके नीचे पटक देता है।
भावार्थ - हम विषयवासना की वृत्तियों को मस्तिष्क में अपना स्थान न बना लेने दें। वहाँ अपना स्थान बनाने से पूर्व ही इन्हें विनष्ट कर डालें। ये तो मायावी रूप धारण करके हममें प्रबल होने के लिए यत्नशील होंगी।
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