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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 42

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
    सूक्त - कुरुसुतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४२

    वाच॑म॒ष्टाप॑दीम॒हं नव॑स्रक्तिमृत॒स्पृश॑म्। इन्द्रा॒त्परि॑ त॒न्वं ममे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाच॒म् । अ॒ष्टाऽप॑दीम् । अ॒हम् । नव॑ऽस्रक्तिम् । ऋ॒त॒ऽस्पृश॑म् ॥ इन्द्रा॑त् । परि॑ । त॒न्व॑म् । म॒मे॒ ॥४२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाचमष्टापदीमहं नवस्रक्तिमृतस्पृशम्। इन्द्रात्परि तन्वं ममे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वाचम् । अष्टाऽपदीम् । अहम् । नवऽस्रक्तिम् । ऋतऽस्पृशम् ॥ इन्द्रात् । परि । तन्वम् । ममे ॥४२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 42; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. प्रभु का स्तवन करता हुआ कुरुसुति कहता है कि (अहम्) = मैं (इन्द्रात्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु से (वाचम्) = वाणी को (परिममे) = अपने अन्दर निर्मित करता हूँ। उस वेदवाणी को जोकि (अष्टापदीम्) = कर्ता, कर्म आदि के पद से आठ पदोंवाली है। (नवस्त्रक्तिम्) = जो हमारे जीवन का स्तुत्य [नु स्तुती] निर्माण करती है और (ऋतस्पृशम्) = सब सत्य विद्याओं के स्पर्शवाली है। २. यह कुरुसुति ज्ञान की वाणी का अपने अन्दर निर्माण करता हुआ (तन्वम्) = शक्तियों के विस्तार को अपने अन्दर निर्मित करता है।

    भावार्थ - हम प्रभु के उपासन के द्वारा अपने अन्दर सत्य-ज्ञान की वाणियों का निर्माण करते हुए शक्तियों का विस्तार करनेवाले हों।

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