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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यमिनी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पशुपोषण सूक्त

    यत्रा॑ सु॒हार्दः॑ सु॒कृतो॒ मद॑न्ति वि॒हाय॒ रोगं॑ त॒न्वः स्वायाः॑। तं लो॒कं य॒मिन्य॑भि॒संब॑भूव॒ सा नो॒ मा हिं॑सी॒त्पुरु॑षान्प॒शूंश्च॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । सु॒ऽहार्द॑: । सु॒ऽकृत॑: । मद॑न्ति । वि॒ऽहाय॑ । रोग॑म् । त॒न्व᳡: । स्वाया॑: । तम् । लो॒कम् । य॒मिनी॑ । अ॒भि॒ऽसंब॑भूव । सा । न॒: । मा । हिं॒सी॒त् । पुरु॑षान् । प॒शून् । च॒ ॥२८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः। तं लोकं यमिन्यभिसंबभूव सा नो मा हिंसीत्पुरुषान्पशूंश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । सुऽहार्द: । सुऽकृत: । मदन्ति । विऽहाय । रोगम् । तन्व: । स्वाया: । तम् । लोकम् । यमिनी । अभिऽसंबभूव । सा । न: । मा । हिंसीत् । पुरुषान् । पशून् । च ॥२८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (यमिनी) = संयमवाली-मन को शासित करनेवाली [मनीषा] बुद्धि (तं लोकं अभि संबभूव) = उस लोक को लक्ष्य करके सत्तावाली होती है, अर्थात् उस लोक को जन्म देती है, (यत्र) = जहाँ (सुहार्दः) = उत्तम हृदयवाले (सकृतः) = उत्तम कर्म करनेवाले लोग (स्वाया: तन्व:) = अपने शरीर के (रोगं विहाय) = रोग को छोड़कर (मदन्ति) = आनन्द का अनुभव करते हैं, अर्थात् जब तक बुद्धि का शासन रहता है तब तक [क] लोगों के हृदय उत्तम रहते है, [ख] उनके कर्म उत्तम होते हैं, [ग] शरीर नीरोग होते हैं। २. (सा) = वह यमिनी बुद्धि (न:) = हमारे (पुरुषान्) = पुरुषों को

    (च) = और (पशून्) = पशुओं को (मा हिंसीत्) = मत हिंसित करे। यह यमिनी बुद्धि पुरुषों के साथ ककर्श भाषा में व्यवहार नहीं करती और न ही उन्हें पीड़ित करती है। मांसाहार से दूर होने के कारण यह पशुओं का संहार भी नहीं करती। इसप्रकार यह 'यमिनी' स्वर्गलोक का निर्माण करती है।

    भावार्थ -

    जब बुद्धि (यमिनी-मनीषा) = मन का शासन करनेवाली होती है तब १. लोगों के हृदय उत्तम होते हैं, २. उनके कर्म उत्तम होते हैं, ३. शरीर नीरोग होते हैं, ४. पुरुषों के प्रति इनका व्यवहार मधुर होता है, ५. मांसाहार के प्रति अरुचि के कारण यह पशुओं का संहार नहीं करती। इसप्रकार यमिनी बुद्धि घर को स्वर्ग बना देती है।

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