अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - यमिनी
छन्दः - विराड्गर्भा प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - पशुपोषण सूक्त
यत्रा॑ सु॒हार्दां॑ सु॒कृता॑मग्निहोत्र॒हुतां॒ यत्र॑ लो॒कः। तं लो॒कं य॒मिन्य॑भि॒संब॑भूव॒ सा नो॒ मा हिं॑सी॒त्पुरु॑षान्प॒शूंश्च॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । सु॒ऽहार्दा॑म् । सु॒ऽकृता॑म् । अ॒ग्नि॒हो॒त्र॒ऽहुता॑म् । यत्र॑ । लो॒क: । तम् । लो॒कम् । य॒मिनी॑ । अ॒भि॒ऽसंब॑भूव । सा । न॒: । मा । हिं॒सी॒त् । पुरु॑षान् । प॒शून् । च॒ ॥२८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रा सुहार्दां सुकृतामग्निहोत्रहुतां यत्र लोकः। तं लोकं यमिन्यभिसंबभूव सा नो मा हिंसीत्पुरुषान्पशूंश्च ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । सुऽहार्दाम् । सुऽकृताम् । अग्निहोत्रऽहुताम् । यत्र । लोक: । तम् । लोकम् । यमिनी । अभिऽसंबभूव । सा । न: । मा । हिंसीत् । पुरुषान् । पशून् । च ॥२८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 6
विषय - उत्तम हृदय, उत्तम कर्म, अग्निहोत्र
पदार्थ -
१. (यमिनी) = संयमवाली बुद्धि तं लोकं अभि-उस लोक का लक्ष्य करके संबभूव-सत्तावाली होती है, अर्थात् उस लोक को जन्म देती है, यत्र-जहाँ (सुहार्तम्) = उत्तम हृदयवालों का तथा (सुकृताम्) = उत्तम कर्म करनेवालों का लोकः-लोक होता है। उस लोक को जन्म देती है यत्र जहाँ अग्निहोत्रहुताम्-अग्निहोत्र करनेवालों का लोक: लोक होता है। २. (सा) = वह यमिनी बुद्धि (नः) = हमारे (पुरुषान्) = पुरुषों को (मा हिंसीत) = मत हिंसित करे (च) = और (पशून्) = पशुओं को भी मत हिसित करे, अर्थात् मांसाहार के प्रति रुचिवाली न हो।
भावार्थ -
यमिनी बुद्धि लोगों के हृदयों व कर्मों को उत्तम बनाती है तथा उन्हें अग्निहोत्र की प्रवृत्तिवाला करती है। यह बुद्धि पुरुषों व पशुओं को हिंसित नहीं करती।
विशेष -
अगले सूक्त का ऋषि उद्दालक है-राष्ट्र में से सब बुराइयों का दलन करनेवाला। सूक्त का देवता 'शितिपाद् अवि' है-शुद्ध [शिति] गतिवाला रक्षक । राजा उद्दालक है। शुद्ध गतिवाला यह रक्षक है -