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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 22

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 22/ मन्त्र 6
    सूक्त - वसिष्ठः, अथर्वा वा देवता - इन्द्रः, क्षत्रियो राजा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमित्रक्षयण सूक्त

    उत्त॑र॒स्त्वमध॑रे ते स॒पत्ना॒ ये के च॑ राज॒न्प्रति॑शत्रवस्ते। ए॑कवृ॒ष इन्द्र॑सखा जिगी॒वां छ॑त्रूय॒तामा भ॑रा॒ भोज॑नानि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्त॑र: । त्वम् । अध॑रे । ते॒ । स॒ऽपत्ना॑: । ये । के । च॒ । रा॒ज॒न् । प्रति॑ऽशत्रव: । ते॒ । ए॒क॒ऽवृ॒ष: । इन्द्र॑ऽसखा । जि॒गी॒वान् । श॒त्रु॒ऽय॒ताम् । आ । भ॒र॒ । भोज॑नानि ॥२२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तरस्त्वमधरे ते सपत्ना ये के च राजन्प्रतिशत्रवस्ते। एकवृष इन्द्रसखा जिगीवां छत्रूयतामा भरा भोजनानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्तर: । त्वम् । अधरे । ते । सऽपत्ना: । ये । के । च । राजन् । प्रतिऽशत्रव: । ते । एकऽवृष: । इन्द्रऽसखा । जिगीवान् । शत्रुऽयताम् । आ । भर । भोजनानि ॥२२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 22; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. हे (राजन्) = अपनी प्रजाओं का रञ्जन करनेवाले शासक! (त्वम् उत्तरः) = तू सर्वोत्कृष्ट हो। (ते) = तेरे (सपना:) = शत्रु (अधरे) = निकृष्ट हों-हीनतर स्थिति में हों। (ये के च) = और जो कोई भी (ते प्रतिशत्रवः) = तेरे प्रति शत्रुत्व का आचरण करनेवाले हों, वे सब अधर-स्थिति में हों। २. (एकवृष:) = अद्वितीय शक्तिशाली (इन्द्रसखा) = प्रभु की मित्रतावाला (जिगीवान्) = शत्रुओं को जीतता हुआ तू (शत्रुयताम्) = शत्रु की भाँति आचरण करनेवाले विरोधियों के (भोजनानि) = भोगसाधन धनों का (आभार) = हरण करनेवाला हो। शत्रुओं को जीतकर उनके धनों को तू अपहत कर ले।

    भावार्थ -

    प्रभु के साथ मित्रतावाला यह राजा सदा शत्रुओं को पराजित करनेवाला होता है। उनके भोगसाधन धनों का यह अपहरण कर लेता है।

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