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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 117

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 117/ मन्त्र 2
    सूक्त - कौशिक देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आनृण्य सूक्त

    इ॒हैव सन्तः॒ प्रति॑ दद्म एनज्जी॒वा जी॒वेभ्यो॒ नि ह॑राम एनत्। अ॑प॒मित्य॑ धा॒न्य यज्ज॒घसा॒हमि॒दं तद॑ग्ने अनृ॒णो भ॑वामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । ए॒व । सन्त॑: । प्रति॑ । द॒द्म॒: । ए॒न॒त् । जी॒वा: । जी॒वेभ्य॑: । नि । ह॒रा॒म॒: । ए॒न॒त् । अ॒प॒ऽमित्य॑ । धा॒न्य᳡म् । यत् । ज॒घस॑ । अ॒हम् । इ॒दम् । तत् । अ॒ग्ने॒। अ॒नृ॒ण: । भ॒वा॒मि॒ ॥११७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहैव सन्तः प्रति दद्म एनज्जीवा जीवेभ्यो नि हराम एनत्। अपमित्य धान्य यज्जघसाहमिदं तदग्ने अनृणो भवामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । एव । सन्त: । प्रति । दद्म: । एनत् । जीवा: । जीवेभ्य: । नि । हराम: । एनत् । अपऽमित्य । धान्यम् । यत् । जघस । अहम् । इदम् । तत् । अग्ने। अनृण: । भवामि ॥११७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 117; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (इह एव सन्त:) = इस लोक में होते हुए ही हम (एनत् प्रति दना:) = इस ऋण को उत्तमर्ण के लिए प्रत्यर्पित कर देते हैं। (जीवा:) = जीते हुए ही हम-अपने जीवनकाल में ही (जीवेभ्यः) = जीवित उत्तमों के लिए देह त्यागने से पहले ही (एनत् निहरामः) = इस ऋण को नियम से चुका देते हैं। २. (धान्यम्) = व्रीहि, यवादि को उत्तमर्ण से (अपमित्य) = उधार लेकर (यत् अहं जघास) = जो मैंने खाया है, हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (इदम्) = अब [इदानीन् तत्-तस्मात्] उस परकीय (धान्य) = भक्षण से (अनृण:) = ऋणरहित (भवामि) = होता हूँ। ऋण चुकाने के कारण नरकपात से मैं बच जाता हूँ।

    भावार्थ -

    हम लिये हुए ऋण को जीवनकाल में ही चुकाने का प्रयत्न करें। ऋण न चुकाना नरक-पात का कारण बनता है।

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