Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 117/ मन्त्र 3
अ॑नृ॒णा अ॒स्मिन्न॑नृ॒णाः पर॑स्मिन्तृ॒तीये॑ लो॒के अ॑नृ॒णाः स्या॑म। ये दे॑व॒यानाः॑ पितृ॒याणा॑श्च लो॒काः सर्वा॑न्प॒थो अ॑नृ॒णा आ क्षि॑येम ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒नृ॒णा: । अ॒स्मिन् । अ॒नृ॒णा: । पर॑स्मिन् । तृ॒तीये॑ । लो॒के । अ॒नृ॒णा: । स्या॒म॒ । ये । दे॒व॒ऽयाना॑: । पि॒तृ॒ऽयाना॑: । च॒ । लो॒का: । सर्वा॑न् । प॒थ: । अ॒नृ॒णा: । आ । क्षि॒ये॒म॒ ॥११७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिन्तृतीये लोके अनृणाः स्याम। ये देवयानाः पितृयाणाश्च लोकाः सर्वान्पथो अनृणा आ क्षियेम ॥
स्वर रहित पद पाठअनृणा: । अस्मिन् । अनृणा: । परस्मिन् । तृतीये । लोके । अनृणा: । स्याम । ये । देवऽयाना: । पितृऽयाना: । च । लोका: । सर्वान् । पथ: । अनृणा: । आ । क्षियेम ॥११७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 117; मन्त्र » 3
विषय - तीनों लोकों में अनृण अनृणा
पदार्थ -
१. हम (अस्मिन्) = इस ब्रह्मचर्याश्रम में ब्रह्मचर्यपूर्वक स्वाध्याय में तत्पर होते हुए (अनृणा:) = ऋषिऋण से अनुण हों। इसके पश्चात् अगले (परस्मिन्) = उत्कृष्ट गृहस्थाश्रम में सन्तानों का उत्तमता से पालन करते हुए (अनृणा:) = पितृऋण से अनृण होने के लिए यत्नशील हों, फिर तृतीये लोके वानप्रस्थरूप तृतीय स्थान में भी (अनृणाः स्याम) यज्ञादि उत्तम कर्म करते हुए देवत्रण से मुक्त हों। २. (ये देवयाना:) = जो देवों के मार्ग हैं (च) = और जो (पितयाणा: लोका:) = पितयाण लोक हैं जिन मार्गों से रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोग चलते हैं, उन (सर्वान्) = सब (पथ:) = मागों को (अनृणा: आक्षियेम) = हम ऋणरहित होकर ही आक्रान्त करें।
भावार्थ -
हम सर्वप्रथम ब्रह्मचर्याश्रम में ऋषिऋण से अनृण होने के लिए यत्नशील हों। गृहस्थ में सन्तान-पालन द्वारा पितृऋण को चुकाएँ और वानप्रस्थ में यज्ञों के द्वारा देवऋण को उतार दें। अब अनृण होकर 'देवयान व पितृयाण' मार्गों का आक्रमण करें।
इस भाष्य को एडिट करें