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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
उ॒भाभ्यां॑ देव सवितः प॒वित्रे॑ण स॒वेन॑ च। अ॒स्मान्पु॑नीहि॒ चक्ष॑से ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भाभ्या॑म् । दे॒व॒ । स॒वि॒त॒: । प॒वित्रे॑ण । स॒वेन॑ । च॒ । अ॒स्मान् । पु॒नी॒हि॒ । चक्ष॑से ॥१९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
उभाभ्यां देव सवितः पवित्रेण सवेन च। अस्मान्पुनीहि चक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठउभाभ्याम् । देव । सवित: । पवित्रेण । सवेन । च । अस्मान् । पुनीहि । चक्षसे ॥१९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
विषय - पवित्रेण सवेन च
पदार्थ -
१. हे (सवितः देव) = सबके प्रेरक, दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभो! आप (अस्मान्) = हमें (पवित्रेण) = ज्ञान के द्वारा [नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते] (च) = और (सवेन) = यज्ञ के द्वारा (पुनीहि) = पवित्र कीजिए। ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों की पवित्रता का सम्पादन करता है तो यज्ञ कर्मेन्द्रियों को पवित्र रखता है। २. (उभाभ्याम्) = आप इन दोनों से ही हमें पवित्र कीजिए, जिससे (चक्षसे) = हम आपको देखने के लिए हों। अपवित्रता का आवरण प्रभु-दर्शन में प्रतिबन्धक है। मल का आवरण हटते ही हृदय में प्रभु का दर्शन होता है।
भावार्थ -
प्रभु हमें ज्ञानों व कर्मों द्वारा पवित्र करें, जिससे हम उसका दर्शन कर सकें।
विशेष -
जीवन को पवित्र बनानेवाला प्रभु हमें ज्ञान व कों द्वारा पवित्र करता है। पवित्रता हमें प्रभु-दर्शन का पात्र बनाती है। अपने को ज्ञानाग्नि में परिपक्व करनेवाला यह 'भगु+अङ्गिराः' सदा गतिशील होता है। यही अलगे सूक्त का ऋषि है।