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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
अ॒न्तश्च॑रति रोच॒ना अ॒स्य प्रा॒णाद॑पान॒तः। व्यख्यन्महि॒षः स्वः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त: । च॒र॒ति॒ । रो॒च॒ना । अ॒स्य । प्रा॒णात् । अ॒पा॒न॒त: । वि । अ॒ख्य॒त् । म॒हि॒ष: । स्व᳡: ॥३१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तश्चरति रोचना अस्य प्राणादपानतः। व्यख्यन्महिषः स्वः ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त: । चरति । रोचना । अस्य । प्राणात् । अपानत: । वि । अख्यत् । महिष: । स्व: ॥३१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
विषय - महिषः
पदार्थ -
१. (प्राणात्) = प्राण से और (अपानतः) = अपान से, अर्थात् प्राणापान की साधना के द्वारा (अस्य) = इस साधक के (अन्त:) = अन्दर-हदयदेश में (रोचना) = दीसि (चरति) = विचरती है। प्राणायाम द्वारा इसका अन्त:करण दीस हो उठता है। २. यह (महिष:) = प्रभुपूजन करनेवाला साधक (स्वः) = स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को (व्यख्यत्) = देखता है। यह ज्ञानदीत हृदय में प्रभु के प्रकाश को देखनेवाला होता है।
भावार्थ -
हम प्राणसाधना द्वारा दीस हृदयदेश में प्रभु की ज्योति को देखनेवाले बनें।
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