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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
त्रिं॒शद्धामा॒ वि रा॑जति॒ वाक्प॑त॒ङ्गो अ॑शि॒श्रिय॑त्। प्रति॒ वस्तो॒रह॒र्द्युभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिं॒शत् । धाम॑ । वि । रा॒ज॒ति॒ । वाक् । प॒त॒ङ्ग: । अ॒शि॒श्रि॒य॒त् । प्रति॑ । वस्तो॑: । अह॑: । द्युऽभि॑: ॥३१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिंशद्धामा वि राजति वाक्पतङ्गो अशिश्रियत्। प्रति वस्तोरहर्द्युभिः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिंशत् । धाम । वि । राजति । वाक् । पतङ्ग: । अशिश्रियत् । प्रति । वस्तो: । अह: । द्युऽभि: ॥३१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
विषय - वाक् पतङ्ग
पदार्थ -
१. यह (वाक्) = प्रभु के नामों व स्तोत्रों का उच्चारण करनेवाला (पतङ्ग) = [पतन गच्छति] स्फूर्ति से क्रियाओं को करनेवाला साधक (अशिश्रियत्) = [श्री सेवायाम्] प्रभु का उपासन करता है और (प्रतिवस्तो:) = प्रतिदिन (अहः द्युभि:) दिन की दीतियों से, न कि रात्रि के अन्धकारों से (त्रिंशद्धाम) = तीसों धाम-आठों प्रहर (विराजति) = देदीप्यमान होता है।
भावार्थ -
हम प्रभु का उपासन करें, क्रियाशील बनें। यही चमकने का मार्ग है। प्रकाशमय जीवन में पाप नहीं होते।
विशेष -
यह यज्ञमय जीवनवाला पुरुष अग्निहोत्र आदि यज्ञों में प्रवृत्त हुआ-हुआ रोगकृमियों का संहार करनेवाला 'चातन' कहलाता है। स्वस्थ एवं शान्त वृत्तिवाला बनकर यह 'अथर्वा' न डॉवाडोल होता है। अगले सूक्त के प्रथम दो मन्त्रों का ऋषि 'चातन है, तीसरे का 'अथर्वा'।