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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
वै॑श्वान॒रो न॒ आग॑मदि॒मं य॒ज्ञं स॒जूरुप॑। अ॒ग्निरु॒क्थेष्वंह॑सु ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒र । न॒: । आ । अ॒ग॒म॒त् । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । स॒ऽजू: । उप॑ । अ॒ग्नि: । उ॒क्थेषु॑ । अंह॑ऽसु ॥३५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरो न आगमदिमं यज्ञं सजूरुप। अग्निरुक्थेष्वंहसु ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानर । न: । आ । अगमत् । इमम् । यज्ञम् । सऽजू: । उप । अग्नि: । उक्थेषु । अंहऽसु ॥३५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 35; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञ+स्तवन
पदार्थ -
१. (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों का हितकारी वह प्रभु (नः आगमत्) = हमें प्राप्त हो। वह प्रभु इम (यज्ञम् उप) = हमारे इस जीवन-यज्ञ में प्राप्त होकर (सजू:) = हमारे प्रति प्रीतिवाला हो। हम प्रभु के प्रीतिपात्र बन पाएँ। २. (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु (अंहसु) = [अहि गती] अभिगन्तव्य (उक्थेषु) = स्तोत्रों के होने पर हमें समीपता से प्राप्त हो।
भावार्थ -
हम जीवन को यज्ञमय बनाएँ, प्रभु का स्तवन करें। हमें अवश्य उस वैश्वानर प्रभु का प्रेम प्राप्त होगा।
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