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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
वै॑श्वान॒रो न॑ ऊ॒तय॒ आ प्र या॑तु परा॒वतः॑। अ॒ग्निर्नः॑ सुष्टु॒तीरुप॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒र: । न॒:। ऊ॒तये॑ । आ । प्र । या॒तु॒ । प॒रा॒ऽवत॑: । अ॒ग्नि: । न॒: । सु॒ऽस्तु॒ती: । उप॑ ॥३५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरो न ऊतय आ प्र यातु परावतः। अग्निर्नः सुष्टुतीरुप ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानर: । न:। ऊतये । आ । प्र । यातु । पराऽवत: । अग्नि: । न: । सुऽस्तुती: । उप ॥३५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
विषय - वैश्वानर-स्तवन
पदार्थ -
१. (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों का हित करनेवाला प्रभु (न:) = हमारे (ऊतये) = रक्षण के लिए (परावतः) = सुदूर देश से (आ प्रयातु) = आभिमुख्येन प्राप्त हो। हम प्रभु के सान्निध्य में अपने को पूर्ण सुरक्षित समझें। २. (अग्नि:) = वह अग्रणी प्रभु (न:) = हमारी (सुस्तुती: उप) = शोभन स्तुतियों को समीपता से स्वीकार करें।
भावार्थ -
हम प्रभु-स्तवन करते हुए, प्रभु के सान्निध्य में अपने को पूर्णतया सुरक्षित जानें।
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