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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 102/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - द्यावापृथिवी, अन्तरिक्षम्, मृत्युः
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - आत्मन अहिंसन सूक्त
न॑म॒स्कृत्य॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म॒न्तरि॑क्षाय मृ॒त्यवे॑। मे॒क्षाम्यू॒र्ध्वस्तिष्ठ॒न्मा मा॑ हिंसिषुरीश्व॒राः ॥
स्वर सहित पद पाठन॒म॒:ऽकृत्य॑ । द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म् । अ॒न्तरि॑क्षाय । मृ॒त्यवे॑ । मे॒क्षामि॑ । ऊ॒र्ध्व: । तिष्ठ॑न् । मा । मा॒ । हिं॒सि॒षु॒: । ई॒श्व॒रा: ॥१०७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्कृत्य द्यावापृथिवीभ्यामन्तरिक्षाय मृत्यवे। मेक्षाम्यूर्ध्वस्तिष्ठन्मा मा हिंसिषुरीश्वराः ॥
स्वर रहित पद पाठनम:ऽकृत्य । द्यावापृथिवीभ्याम् । अन्तरिक्षाय । मृत्यवे । मेक्षामि । ऊर्ध्व: । तिष्ठन् । मा । मा । हिंसिषु: । ईश्वरा: ॥१०७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 102; मन्त्र » 1
विषय - 'अग्नि, वायु, आदित्य व यम' को नमस्कार
पदार्थ -
१. (द्यावापृथिवीभ्याम् नमस्कृत्य) = द्यावापृथिवी के लिए नमस्कार करके (अन्तरिक्षाय मृत्यवे) = अन्तरिक्ष व मृत्यु के लिए नमस्कार करके (ऊर्ध्व: तिष्ठन्) = ऊपर स्थित होता हुआ, अर्थात् विषय-वासनाओं में न फंसता हुआ (मेक्षामि) = गति करता हूँ [मियक्षतिर्गतिकर्मा-नि०२।२४]। 'द्यावा' मस्तिष्क है, 'पृथिवी' शरीर है। इन्हें दीप्त व दृढ़ बनाने के लिए मैं प्रभु के प्रति नमस्कारवाला होता हूँ। 'अन्तरिक्ष' हदय है। इसे पवित्र बनाने के लिए भी मैं प्रभु के प्रति नतमस्तक होता है, साथ ही मृत्यु का स्मरण भी करता हूँ। मृत्यु का स्मरण मुझे वासनाओं में फैंसने से बचाता है। मैं इन वासनाओं से ऊपर उठ जाता हूँ। २. मेरी तो यही प्रार्थना है कि (मा) = मुझे (ईश्वराः मा हिंसिष:) = आदित्य, अग्नि, वायु व यम [मृत्युदेव] हिंसित न करें। मैं अहिंसित होता हुआ चिरकाल तक इस लोक में अवस्थित रहूँ। ये देव मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त कराएँ।
भावार्थ -
हम मस्तिष्क, शरीर व हृदय को दीस, दृढ़ व पवित्र बनाने के लिए मृत्युरूप भगवान् का स्मरण करें। यह स्मरण हमें वासनाओं से ऊपर स्थित करे। हम वासनाओं में न फैंसते हुए 'अग्नि, वायु, आदित्य' देवों की अनुकूलता से दीर्घजीवी हों।
वासनाओं से ऊपर उठकर यह व्यक्ति उन्नति-पथ पर बढ़ता है। उन्नत होता हुआ 'ब्रह्मा' बनता हैं। यह 'ब्रह्मा' अगले दो सूक्तों का ऋषि है -
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