Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
यदा॒शसा॒ वद॑तो मे विचुक्षु॒भे यद्याच॑मानस्य॒ चर॑तो॒ जनाँ॒ अनु॑। यदा॒त्मनि॑ त॒न्वो मे॒ विरि॑ष्टं॒ सर॑स्वती॒ तदा पृ॑णद्घृ॒तेन॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । आ॒ऽशसा॑ । वद॑त: । मे॒ । वि॒ऽचु॒क्षु॒भे । यत् । याच॑मानस्य । चर॑त: । जना॑न् । अनु॑ । यत् । आ॒त्म्ननि॑ । त॒न्व᳡: । मे॒ । विऽरि॑ष्टम् । सर॑स्वती । तत् । आ । पृ॒ण॒त् । घृ॒तेन॑ ॥५९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यदाशसा वदतो मे विचुक्षुभे यद्याचमानस्य चरतो जनाँ अनु। यदात्मनि तन्वो मे विरिष्टं सरस्वती तदा पृणद्घृतेन ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । आऽशसा । वदत: । मे । विऽचुक्षुभे । यत् । याचमानस्य । चरत: । जनान् । अनु । यत् । आत्म्ननि । तन्व: । मे । विऽरिष्टम् । सरस्वती । तत् । आ । पृणत् । घृतेन ॥५९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
विषय - वामदेव का अपमान-सहन
पदार्थ -
१. जिस समय एक ब्राह्मण [संन्यासी] जनता में प्रचार करता है, तब कई बार कुछ लोकप्रवाद भी सुनने ही पड़ते हैं, अतः यह प्रार्थना करता है कि (यत्) = जब (वदतः) = जनता में प्रवचन करते हुए (आशसा) = लोगों द्वारा हिंसन से में (विचक्षभे) = मेरा मन कुछ विक्षुब्ध हो उठता है, और (यत्) = जो (जनान् अनुचरत:) = लोगों के प्रति जाते हुए और (याचमानस्य) = किन्ही कार्यविशेषों के लिए इनसे प्रार्थना करते हुए उनके न समझने से मेरा मन कुछ क्षुब्ध-सा होता है, और (यत) = जो मे (तन्व: विरिष्टम) = मेरे शरीर का हिंसन होता है. ये कुछ ईंट-रोड़ बरसा देते हैं, (तत्) = उस सबको (सरस्वती) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता (घृतेन आपृणत्) = ज्ञानदीप्ति व मलक्षरण द्वारा पूरित कर दे और मुझे (आत्मनि) = [स्थापयतु इति शेषः] स्वभाव में-क्षोभराहित्य स्थिति में स्थापित करे। २. ज्ञानी पुरुष लोगों में ज्ञान का प्रचार करेगा व उन्हें किन्ही कर्मों से रोकेगा तो कुछ विरोधी लोग भी उपस्थित होंगे ही। वे कुछ-न-कुछ हिंसन करेंगे ही, अपमानजनक शब्द भी बोलेंगे, चोट मारने का भी यत्न करेंगे। उस समय यह ज्ञानी पुरुष चाहता है कि ज्ञान उसे क्षुब्ध होने से बचाये। ज्ञान के कारण वह स्वस्थ स्थिति में रह सके।
भावार्थ -
ज्ञानी पुरुष जब ज्ञान का प्रचार करते हैं, तब विरोधी लोग अपशब्द भी बोलते हैं, प्रहार भी करते हैं। ज्ञानी को चाहिए कि इन्हें सहन करता हुआ अपने कर्तव्य-कर्म में लगा रहे।
इस भाष्य को एडिट करें