Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 56

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - वृश्चिकादयः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषभेषज्य सूक्त

    य उ॒भाभ्यां॑ प्र॒हर॑सि॒ पुच्छे॑न चा॒स्येन च। आ॒स्ये॒ न ते॑ वि॒षं किमु॑ ते पुच्छ॒धाव॑सत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । उ॒भाभ्या॑म् । प्र॒ऽहर॑सि । पुच्छे॑न । च॒ । आ॒स्ये᳡न । च॒ । आ॒स्ये᳡ । न । ते॒ । वि॒षम् । किम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । पु॒च्छ॒ऽधौ । अ॒स॒त् ॥५८.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य उभाभ्यां प्रहरसि पुच्छेन चास्येन च। आस्ये न ते विषं किमु ते पुच्छधावसत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । उभाभ्याम् । प्रऽहरसि । पुच्छेन । च । आस्येन । च । आस्ये । न । ते । विषम् । किम् । ऊं इति । ते । पुच्छऽधौ । असत् ॥५८.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. हे वृश्चिक! (य:) = जो तू (उभाभ्यां पुच्छेन च आस्येन च) = पूँछ और मुख दोनों से (प्रहरसि) = प्रहार करता है, अत: (ते आस्ये) = तेरे मुख में तो (विष न) = विष नहीं है, (किम् उ) = और क्या (ते) = तेरे इस (पुच्छधौ) = छोटी पूँछ ही में (असत्) = होता है, अर्थात् तेरा विष किसी को क्या मार सकता है? अतः व्यर्थ में तु डसता ही क्यों है?

     

    भावार्थ -

    बिच्छू के मुख में तो विष होता ही नहीं, पुच्छधि में होनेवाला विष भी सरलता से ही चिकित्स्य है।

    गत सूक्त के सर्प व वृश्चिक की भाँति मुझे औरों को डसनेवाला नही बनना' इस भावना से जीवन का निर्माण करनेवाला यह साधक 'वामदेव' बनता है, वाम सुन्दर दिव्य गुणोंवाला। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top