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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
उत्ति॑ष्ठ॒ताव॑ पश्य॒तेन्द्र॑स्य भा॒गमृ॒त्विय॑म्। यदि॑ श्रा॒तं जु॒होत॑न॒ यद्यश्रा॑तं म॒मत्त॑न ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । अव॑ । प॒श्य॒त॒ । इन्द्र॑स्य । भा॒गम् । ऋ॒त्विय॑म् । यदि॑ । श्रा॒तम् । जु॒होत॑न । यदि॑ । अश्रा॑तम् । म॒मत्त॑न ॥७५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तिष्ठताव पश्यतेन्द्रस्य भागमृत्वियम्। यदि श्रातं जुहोतन यद्यश्रातं ममत्तन ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । तिष्ठत । अव । पश्यत । इन्द्रस्य । भागम् । ऋत्वियम् । यदि । श्रातम् । जुहोतन । यदि । अश्रातम् । ममत्तन ॥७५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 72; मन्त्र » 1
विषय - 'श्रातं जुहोतन' ब्रह्मचर्य से गृहस्थ में
पदार्थ -
१. प्रभु कहते हैं कि (उत्तिष्ठत) = उठो, आलस्य को छोड़ो, लेटे ही न रहो। (अवपश्यत) = अपने अन्दर देखनेवाले बनो। अपनी कमियों को देखकर उन्हें दूर करनेवाले बनो। (इन्द्रस्य) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के (ऋत्वियम्) = समय पर प्राप्त (भागम्) = कर्तव्यभाग को देखनेवाले बनो। जो तुम्हारा प्रस्तुत कर्तव्य है, उसे देखकर उसके पालन में तत्पर होवो। जीवन के प्रथमा श्रम में 'ज्ञान-प्राप्ति' ही मुख्य कर्तव्य है। उस ज्ञान-प्रासिरूप कर्तव्य को देखकर उस ज्ञान-प्राप्ति में लंगे रहना ही ब्रह्मचारी के लिए शोभा देता है। २. आचार्य का कर्तव्य है कि यदि वह (श्रातम्) = यह अनुभव करे कि उसका विद्यार्थी ज्ञानपरिपक्व हो गया है, तो उस ज्ञानपरिपक्व विद्यार्थी को (जुहोतन) = आहुत कर दे, उसकी गृहस्थयज्ञ में आहुति दे दे, उसे गृहस्थ में प्रवेश की स्वीकृति दे दे, परन्तु यदि (अश्रातम्) = वह अभी ज्ञानपरिपक्व नहीं हुआ तो (ममत्तन) = उसे [पचत-सा०] अभी और पक्व करने का यत्न करे अथवा उसे अभी ज्ञान-प्राप्ति में ही आनन्द लेने के लिए प्रेरित करे।
भावार्थ -
उठो, अपनी कमियों को दूर करो। ब्रह्मचर्याश्चम में अपने को ज्ञानपरिपक्व करके गृहस्थ में जाने के लिए तैयारी करो।
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