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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 8
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - दम्पती देवते छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
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    प्रा॒णम्मे॑ पाह्यपा॒नम्मे॑ पाहि व्या॒नम्मे॑ पाहि॒ चक्षु॑र्मऽउ॒र्व्या विभा॑हि॒ श्रोत्र॑म्मे श्लोकय। अ॒पः पि॒न्वौष॑धीर्जिन्व द्वि॒पाद॑व॒ चतु॑ष्पात् पाहि दि॒वो वृष्टि॒मेर॑य॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णम्। मे॒। पा॒हि॒। अ॒पा॒नमित्य॑पऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। व्या॒नमिति॑ विऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। चक्षुः॑। मे॒। उ॒र्व्या। वि। भा॒हि॒। श्रोत्र॑म्। मे॒। श्लो॒क॒य॒। अ॒पः। पि॒न्व॒। ओष॑धीः। जि॒न्व॒। द्वि॒पादिति॑ द्वि॒ऽपात्। अ॒व॒। चतु॑ष्पात्। चतुः॑पा॒दिति॒ चतुः॑ऽपात्। पा॒हि॒। दि॒वः। वृष्टि॑म्। आ। ई॒र॒य॒ ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणम्मे पाहि अपानम्मे पाहि व्यानम्मे पाहि चक्षुर्मऽउर्व्या विभाहि । श्रोत्रम्मे श्लोकय । अपः पिन्वौषधीर्जिन्व द्विपादव चतुष्पात्पाहि दिवो वृष्टिमेरय ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणम्। मे। पाहि। अपानमित्यपऽआनम्। मे। पाहि। व्यानमिति विऽआनम्। मे। पाहि। चक्षुः। मे। उर्व्या। वि। भाहि। श्रोत्रम्। मे। श्लोकय। अपः। पिन्व। ओषधीः। जिन्व। द्विपादिति द्विऽपात्। अव। चतुष्पात्। चतुःपादिति चतुःऽपात्। पाहि। दिवः। वृष्टिम्। आ। ईरय॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 8
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    भावार्थ -
    हे प्रभो ! ( मे प्राण पाहि ) मुझ प्रजागण के प्राण को रक्षा कर । ( मे अपानं पाहि ) मेरे अपान की रक्षा कर । ( मे व्यानं पाहि ) मेरे शरीर के विविध संधियों में चलने वाले व्यान की रक्षा कर । ( मे चक्षु: ) मेरे चक्षु को ( उर्व्या ) विशाल, विस्तृत दर्शन शक्ति से ( विभाहि ) प्रकाशित कर । ( मे श्रोत्रम् ) मेरे श्रोत्र को ( श्लोकय ) श्रवण समर्थ कर । ( अपः पिन्व ) जलों के समान प्राणों को सेचन कर उनको पुष्ट कर। ( ओषधीः) ओषधियों को ( जिन्व ) प्राप्त कर, ( द्विपात् ) दो पांव के मनुष्यों की रक्षा कर । ( चतुष्पात् पाहि ) चौपायों की रक्षा कर । (दिवः ) द्यौलोक से ( वृष्टिम् ईरय ) वृष्टि को प्रेरित कर ।अथवा जैसे आकाश से वृष्टि होती है उसी प्रकार तेरी तरफ़ से सुखों की वर्षा हो । स्त्री के पक्ष में- हे पते ! तू ( उर्व्या ) विशाल शक्ति से मेरे प्राण, अपान और व्यान की रक्षा कर । चक्षु को प्रकाशित कर । श्रोत्र को उत्तम शास्त्र- श्रवण से युक्त कर । प्राणों को पुष्ट कर। औषधियों को प्राप्त कर । भृत्य और चौपायों की रक्षा कर। सूर्य जैसे पृथ्वी पर वर्षा करता है ऐसे तू मुझ अपनी भूमि रूप स्त्री पर सन्तानादि के निमित्त वीर्यादि का प्रदान कर ॥ शत० ८ । २ । ३ । ३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पूर्वार्धस्य प्राणाः उत्तरार्धस्य च आपो देवताः । निचृदति जगती । निषादः ॥

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