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यजुर्वेद अध्याय - 14

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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 8
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - दम्पती देवते छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
    4

    प्रा॒णम्मे॑ पाह्यपा॒नम्मे॑ पाहि व्या॒नम्मे॑ पाहि॒ चक्षु॑र्मऽउ॒र्व्या विभा॑हि॒ श्रोत्र॑म्मे श्लोकय। अ॒पः पि॒न्वौष॑धीर्जिन्व द्वि॒पाद॑व॒ चतु॑ष्पात् पाहि दि॒वो वृष्टि॒मेर॑य॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णम्। मे॒। पा॒हि॒। अ॒पा॒नमित्य॑पऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। व्या॒नमिति॑ विऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। चक्षुः॑। मे॒। उ॒र्व्या। वि। भा॒हि॒। श्रोत्र॑म्। मे॒। श्लो॒क॒य॒। अ॒पः। पि॒न्व॒। ओष॑धीः। जि॒न्व॒। द्वि॒पादिति॑ द्वि॒ऽपात्। अ॒व॒। चतु॑ष्पात्। चतुः॑पा॒दिति॒ चतुः॑ऽपात्। पा॒हि॒। दि॒वः। वृष्टि॑म्। आ। ई॒र॒य॒ ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणम्मे पाहि अपानम्मे पाहि व्यानम्मे पाहि चक्षुर्मऽउर्व्या विभाहि । श्रोत्रम्मे श्लोकय । अपः पिन्वौषधीर्जिन्व द्विपादव चतुष्पात्पाहि दिवो वृष्टिमेरय ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणम्। मे। पाहि। अपानमित्यपऽआनम्। मे। पाहि। व्यानमिति विऽआनम्। मे। पाहि। चक्षुः। मे। उर्व्या। वि। भाहि। श्रोत्रम्। मे। श्लोकय। अपः। पिन्व। ओषधीः। जिन्व। द्विपादिति द्विऽपात्। अव। चतुष्पात्। चतुःपादिति चतुःऽपात्। पाहि। दिवः। वृष्टिम्। आ। ईरय॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे पते स्त्रि पुरुष वा! त्वमुर्व्या सह मे प्राणं पाहि, मेऽपानं पाहि, मे व्यानं पाहि, मे चक्षुर्विभाहि, मे श्रोत्रं श्लोकयापः पिन्वौषधीर्जिन्व द्विपादव चतुष्पात् पाहि। यथा सूर्यो दिवो वृष्टिं करोति तथा गृहकृत्यमेरय॥८॥

    पदार्थः

    (प्राणम्) नाभेरूर्ध्वगामिनम् (मे) मम (पाहि) रक्ष (अपानम्) यो नाभेरर्वाग्गच्छति तम् (मे) मम (पाहि) (व्यानम्) यो विविधेषु शरीरसंधिष्वनिति तम् (मे) (पाहि) (चक्षुः) नेत्रम् (मे) (उर्व्या) बहुरूपयोत्तमफलप्रदया पृथिव्या सह। उर्वीति पृथिवीना॰॥ (निघं॰१।१) (वि) (भाहि) (श्रोत्रम्) (मे) (श्लोकय) शास्त्रश्रवणाय सम्बन्धय (अपः) प्राणान् (पिन्व) पुष्णीहि सिञ्च (ओषधीः) सोमयवादीन् (जिन्व) प्राप्नुहि। जिन्वतीति गतिकर्म्मा॰॥ (निघं॰२।१४) (द्विपात्) मनुष्यादीन् (अव) रक्ष (चतुष्पात्) गवादीन् (पाहि) (दिवः) सूर्य्यप्रकाशात् (वृष्टिम्) (आ) (ईरय) प्रेरय। [अयं मन्त्रः शत॰८.२.३.३ व्याख्यातः]॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। स्त्रीपुरुषौ स्वयंवरं विवाहं विधायातिप्रेम्णा परस्परं प्राणप्रियाचरणं शास्त्रश्रवणमोषध्यादिसेवनं कृत्वा यज्ञाद् वृष्टिं च कारयेताम्॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे पते वा स्त्रि! तू (उर्व्या) बहुत प्रकार की उत्तम क्रिया से (मे) मेरे (प्राणम्) नाभि से ऊपर को चलने वाले प्राणवायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (अपानम्) नाभि के नीचे गुह्येन्द्रिय मार्ग से निकलने वाले अपान वायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (व्यानम्) विविध प्रकार की शरीर की संधियों में रहने वाले व्यान वायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (चक्षुः) नेत्रों को (विभाहि) प्रकाशित कर (मे) मेरे (श्रोत्रम्) कानों को (श्लोकय) शास्त्रों के श्रवण से संयुक्त कर (अपः) प्राणों को (पिन्व) पुष्ट कर (ओषधीः) सोमलता वा यव आदि ओषधियों को (जिन्व) प्राप्त हो (द्विपात्) मनुष्यादि दो पगवाले प्राणियों की (अव) रक्षा कर (चतुष्पात्) चार पग वाले गौ आदि की (पाहि) रक्षा कर और जैसे सूर्य्य (दिवः) अपने प्रकाश से (वृष्टिम्) वर्षा करता है, वैसे घर के कार्यों को (एरय) अच्छे प्रकार प्राप्त कर॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि स्वयंवर विवाह करके अति प्रेम के साथ आपस में प्राण के समान प्रियाचरण, शास्त्रों का सुनना, ओषधि आदि का सेवन और यज्ञ के अनुष्ठान से वर्षा करावें॥८॥

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    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    भाषार्थ हे पते वा स्त्रि! तू बहुत प्रकार दी उत्तम क्रिया से मेरे नाभि से ऊपर को चलने वाले प्राणवायु की रक्षा कर मेरे नाभि के नीचे गुह्येन्द्रिय मार्ग से निकलने वाले अपान वायु की रक्षा कर मेरे में विविध प्रकार की शरीर की संधियों में रहने वाले व्यान वायु की रक्षा कर मेरे नेत्रों को प्रकाशित कर मेरे कानों को शास्त्रों के श्रवण से संयुक्त कर प्राणो को पुष्ट कर सोमलता व यव आदि औषधियों को को प्राप्त हो मनुष्य आदि दो पग वाले प्राणियों की रक्षा कर चार पग वाले गौ आदि की रक्षा कर जैसे सूर्य अपने प्रकाश से वर्षा करता है, वैसे घर के कार्यों को अच्छी प्रकार प्राप्त कर।

    सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्। असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥ १३.१५

    भाषार्थः ईश्वर अत्यन्त सूक्ष्म होने से बाहर की आंख तथा त्वचा से जानने योग्य नहीं। ईश्वर न आता है और न ही कहीं जाता है। क्योंकि वह दूर तथा पास सब स्थानों पर विद्यमान है,पर निराकार होने से दिखाई नहीं देता। (गीता १३.१५)

    यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यन्ति । तमेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ केनोपनिषद् १.६

    भाषार्थः जो आंख से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आंखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं उनकी उपासना ब्रह्म से स्थान में मत कर।

    शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज

    चक्षुम्मे पाहि प्राणम्मे पाहि श्रोत्रोम्मे पाहि त्वचाम्मे पाहि अमृतं देवत्वं ब्रहे कृताः मानं ब्रतं व्रतेः वेद का मन्त्र कहता है कि जब आचार्यों के समीप ब्रह्मचारी विद्यमान होता है, पठन पाठन की पद्धति को अपनाता है तो वह कहता है कि प्राणम्मे पाहि मैं परमात्मा को प्राणों में पान करना चाहता हूँ चक्षुम्मे पाहि मैं चक्षु में उसे दृष्टिपात करना चाहता हूँ, प्रत्येक इन्द्रियों के रूप में उस प्रभु का दर्शन चाहता हूँ। तो जब मुझे वह नही प्राप्त होता है तो संसार का ज्ञान और विज्ञान मुझे दृष्टिपात होता है। तो जिज्ञासु कहता है कि मैं अपने में समाहित हो जाता है तो वह परमपिता परमात्मा आत्मा में ही दृष्टिपात होता रहता है और जब सर्वत्र ब्रह्माण्ड को जान करके और उसके ज्ञान और विज्ञान में लुप्त हो जाता है तो वह परमपिता परमात्मा को जानने के पश्चात वह अनिर्वर्चनीय बन जाता है वह वचन से नियम से उसको जाना नही जाता है वह अपने में अनिर्वर्चनीय बन जाता है उसका वर्णन नही किया जाता है।

    तो आचार्य जन कहते हैं प्राणम्मे पाहि यह जो प्राण है, वह गति है वह गति केवल सन्निधान मात्र से ही गति हो रही है और गति में जो ज्ञान और विज्ञान निहित रहता है उसको जानना हमारा कर्तव्य है। तो वेद का ऋषि यह कहता है प्राणम्मे पाहि हम सर्वत्रता में उसको पान करना चाहते हैं तो वह इस प्रकार पान नही किया जाता है तो विचारवेत्ता यह कहते हैं कि वह याग में ऋषि जैसे आचार्यों का कथन रहा है कि जितना भी इन्द्रियों का विषय है वह सब कर्तव्यवाद कहलाता है परन्तु वह परमात्मा का अनन्य विषय है, वह आत्मा के सम्बन्ध में उसे यह आत्मा भूतों का पालन करने वाला है और यह आत्मा ही परमात्मा का दर्शन करता है। तो इसीलिए हम आत्मवेत्ता बनें और आत्मवेत्ता तब बन सकते हैं जब हम नम्र बनेंगें, सब वस्तुओं को जान करके हम नमः हो जायेंगें।

    यज्ञमान याग करता है और वह कहता है प्राणं ब्रह्मे प्राणम्मे पाहि, उदानम्मे पाहि, समानम्मे पाहि, इस प्रकार यज्ञमान अपने में यागिक बने।  जब ऋषि ने वर्णन किया, तो यज्ञदत ब्रह्मचारी ने कहा प्रभु! यज्ञमान याग करना चाहता है तो कितने होता हो? उन्होंने कहा कि चौबीस होताओं के द्वारा याग करे, दस प्राणों पर यह ब्रह्माण्ड स्थित हो रहा है इसमें प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान, नाग, देवदत, धनंजय, कुरू और कृकल इस प्रकार यह दस प्राण कहलाते हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ यह मन, बुद्धि, चित्त अहंकार इसके ऊपर सर्वत्र ब्रह्माण्ड निहित रहता है मानव का शरीर भी इसी पर निहित रहता है।

    आचार्य अपने कुल में विद्यमान हो करके कहता है चक्षुम्मे पाहि श्रोत्रोम्मे पाहि हे ब्रह्मचारी! तू परमात्मा को सर्वत्र इन्द्रियों के ऊपर अन्वेषण कर, ओर उसका साकल्य एकत्रित करके तू आत्मा में याग करने का प्रयास कर, तूझे आत्मा का दर्शन होगा तो आध्यात्मिक याग वेत्ता बनेगा।

    चक्षुम्मे पाहि उस परमपिता परमात्मा को चक्षु में पाना चाहते हैं। श्रोत्रम्मे पाहि वहाँ भी हम प्रायः अपने में चिन्तन करते रहते हैं और प्रत्येक भावना में परमपिता परमात्मा को ध्यानावस्थित हो करके उस वेदमन्त्र का अध्ययन करते हुए, जिसमें परमपिता परमात्मा को पाने की प्रतिक्रिया हमारे जीवन में उत्पन्न होती हैं तो हमारे यहाँ एक एक वेदमन्त्र कहता है आचार्य ब्रह्मचारी से विद्यालय में विद्यमान हो करके कहता है हे ब्रह्मचारी! तू मुझे इन्द्रियों को प्रदान कर, इन्द्रियों के विषयों को वह आचार्य को प्रदान करता है उसके पश्चात उसे विद्या का उपदेश देता हैं। ब्रह्म सूत्रों का पठन पाठन करता हुआ ब्रह्म का उपदेश दे करके, उसको महान बनाने का प्रयास करता हैं।

    वेदमन्त्र कहता हैं प्रत्येक प्राणी मात्र उस परमपिता परमात्मा को पाना चाहता हैं श्रोत्रम्मे पाहि चक्षुम्मे पाहि, घ्राणम्मे पाहि, वह उसको सर्वत्रता में पाना चाहता हैं।

    विचार केवल यह कि प्रत्येक इन्द्रिय के ऊपर, वाणी से पाना चाहता है। वाणी को चिन्तन में लिया जाए। यह जो, सदैव सत्य ही उच्चारण करती दृष्टिपात करता है, सत्य ही दृष्टिपात होती है वह उसके नेत्रों में ज्योति उत्पन्न हो जाती है ओर वह ज्योति इस प्रकार की है कि वह शरीरों को जिस प्रकार का दृष्टिपात से वज्र बनाना चाहता है उसी प्रकार का बन जाता है तो विचार आता रहता है जब हम नेत्रों की ज्योति को पवित्र बनाना चाहतें हैं वाणी को पवित्र बनाना चाहते हैं तो प्रत्येक इन्द्रियों का जो समन्वय होता है वह कहता है चक्षुम्मे पाहि हम उस परमपिता परमात्मा को पाना चाहते हैं परन्तु चक्षुओं में उनका विषय समाप्त हो जाता है परमात्मा प्राप्त नही होता, विषय प्राप्त हो जाता है।

    तो आज का हमारा वेदमन्त्र अपने में उदगीत गा रहा है और उस परमदेव आनन्द की महिमा का सदैव अपने में बखान कर रहा है वेदमन्त्र कहता है। प्राणम्मे पाहि, उदानम्मे पाहि, चक्षुम्मे पाहि, प्रत्येक मानव अपने में विचारता रहा है कि मैं परमात्मा का चक्षु के द्वार जानना चाहता हूँ परन्तु उसको पाने की इच्छा कर रहा है, नेत्रों को शान्त कर लेता है चक्षु, अग्नि के रूप में जब दृष्टिपात करता है परन्तु जब वह यह दृष्टिपात करता है तो स्वतः अग्नि हो जाती है। जब वह यह कहता है कि श्रोत्रम्मे पाहि वह श्रोत्रों के ऊपर चिन्तन करता परमात्मा को पाना चाहता है तो वह भी अन्तरिक्ष ओर दिशाओं का रूप बन जाता है। वह कहता है कि घ्राणम्मे पाहि जब वह घ्राण के द्वारा पाना चाहता है तो घ्राण स्वतः अपने में वायु का स्वरूप धारण कर लेता है। वह कहता है कि मैं त्वचा से पाना चाहता हूँ। तो वह त्वचा अपने में स्पर्श का रूप धारण कर लेता है और घ्राण पृथ्वी के रूपों में रत्त हो करके अपने में शान्त हो जाता है।

    तो विचार आता रहता है कि हम परमपिता परमात्मा को कैसे प्राप्त करें, क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा तो उसे पाया नही जाता। चक्षु में जाते हैं तो अग्नि बन जाती है और श्रोत्रों में जाते हैं तो वह दिशा बन जाती है ओर रसना में जाते हैं तो वह रस, जल बन जाता है, आपो में प्रवेश हो जाता है और यदि उसको त्वचा के द्वारा पाना चाहते हैं तो वायु स्वरूप बन जाता है ओर घ्राण के द्वारा पाना चाहते हैं तो वह गुरुत्व, पृथ्वी में प्रवेश हो जाता है।

    वेदमन्त्र कहता है कि कैसे प्राप्त करें?  मुझे वह काल स्मरण आ रहा है जब मैं याज्ञवल्क्य मुनि महाराज के द्वारा प्रवेश करता हूँ। जहाँ के ब्रह्मचारियों के मध्य में विद्यमान हो करके, ब्रह्मचारी आचार्य जन एक पंक्ति में विद्यमान हैं। प्रातःकालीन आचार्य नैतिक शिक्षा में ओर परमपिता परमात्मा के पाने के लिए सदैव उनका कुछ न कुछ उपदेश होता रहता है।

    तो एक समय प्रातःकालीन जब याग के पश्चात, ब्रह्मचारियों को उदगीत गाना प्रारम्भ किया, तो उन्होंने यह उदगीत गाया कि हम परमपिता परमात्मा की अमूल्य विद्या को अपने में धारण करना चाहते हैं तो यज्ञदत ब्रह्मचारी ने कहा हे प्रभु! वेद में मन्त्र आया है कि नेत्रों से तो विद्या को ओर अग्नि को जाना जाता है। उन्होंने कहा हे प्रभु! हम श्रोत्रों के द्वारा जानना चाहते हैं। उन्होंने कहा यह जो श्रोत्र है ये दिशा रूप बन जाते हैं जो हमारे यहाँ दिशाएं हैं जैसे हमारे यहाँ प्राचीदिग दिशा है, दक्षिणदिग है, प्रतीचीदिग है और उदीचीदिग धु्रवा और ऊर्ध्वा में यह दिशा रूप बन जाती है। जब शब्द का उदबोधन होता है कि जब शब्द उच्चारण किया जाता है तो पूर्व से दक्षिण में गमन करता है ओर गमन करता हुआ यह दिशाओं को भ्रमण करता हुआ श्रोत्रों में प्रवेश करता रहता है इसी प्रकार वह शब्द रूप दिशाओं के, अपने स्वरूप को यह धारण कर लेता है, वह स्वतः दिशा बन जाते हैं। उसको हम प्राप्त नही कर सकेंगें। तो उन्होंने कहा घ्राणम्मे पाहि हे प्रभु! हम घ्राण के द्वारा कैसे जानें? उन्होने कहा घ्राण तो यह पृथ्वी का गुण है और पृथ्वी से घ्राण इन्द्रिया का समन्वय रहता है इसी की मन्द सुगन्ध को वह अपने में ग्रहण करता रहता है। इसी प्रकार प्राणम्मे पाहि हम प्राण के द्वारा हम वायु को जानना चाहते हैं। वायु प्राण रूप बन गया है, प्राण से अपान बन गया, अपान से व्यान बन गया और व्यान से समान बन करके उदान बन गया। प्राणों के करोड़ों प्रकार के परमाणु लाकर के यह बाह्य जगत से आन्तरिक दोनों प्रकार का यह क्रियाकलाप करता है अपान जितनी भी ऊर्ध्वा गति है फेंकने वाली गति है यह सब अपान के द्वारा उत्पन्न होती रहती है ओर इसी प्रकार व्यान निरक्षणं वह सर्वत्र निरक्षकवादी है ओर सब में दृष्टिपात करने वाला समान है और उदान चित्त के मण्डल में प्रवेश हो जाते हैं नाना प्रकार का जो हमारा आन्तरिक जगत है इसको मन, बुद्धि, चित्त ओर अहंकार के रूप में परिणत किया जाता है तो इसके द्वारा हम इसको जानने के लिए तत्पर होते हैं।

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    विषय

    प्राणादि के पालन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! ( मे प्राण पाहि ) मुझ प्रजागण के प्राण को रक्षा कर । ( मे अपानं पाहि ) मेरे अपान की रक्षा कर । ( मे व्यानं पाहि ) मेरे शरीर के विविध संधियों में चलने वाले व्यान की रक्षा कर । ( मे चक्षु: ) मेरे चक्षु को ( उर्व्या ) विशाल, विस्तृत दर्शन शक्ति से ( विभाहि ) प्रकाशित कर । ( मे श्रोत्रम् ) मेरे श्रोत्र को ( श्लोकय ) श्रवण समर्थ कर । ( अपः पिन्व ) जलों के समान प्राणों को सेचन कर उनको पुष्ट कर। ( ओषधीः) ओषधियों को ( जिन्व ) प्राप्त कर, ( द्विपात् ) दो पांव के मनुष्यों की रक्षा कर । ( चतुष्पात् पाहि ) चौपायों की रक्षा कर । (दिवः ) द्यौलोक से ( वृष्टिम् ईरय ) वृष्टि को प्रेरित कर ।अथवा जैसे आकाश से वृष्टि होती है उसी प्रकार तेरी तरफ़ से सुखों की वर्षा हो । स्त्री के पक्ष में- हे पते ! तू ( उर्व्या ) विशाल शक्ति से मेरे प्राण, अपान और व्यान की रक्षा कर । चक्षु को प्रकाशित कर । श्रोत्र को उत्तम शास्त्र- श्रवण से युक्त कर । प्राणों को पुष्ट कर। औषधियों को प्राप्त कर । भृत्य और चौपायों की रक्षा कर। सूर्य जैसे पृथ्वी पर वर्षा करता है ऐसे तू मुझ अपनी भूमि रूप स्त्री पर सन्तानादि के निमित्त वीर्यादि का प्रदान कर ॥ शत० ८ । २ । ३ । ३ ॥

    टिप्पणी

    दम्पती देवते । द० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पूर्वार्धस्य प्राणाः उत्तरार्धस्य च आपो देवताः । निचृदति जगती । निषादः ॥

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    विषय

    अपः + ओषधीः- आठ आदेश

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के पति-पत्नी से प्रभु कहते हैं कि हैं कि हे जीव ! (मे प्राणं पाहि) = मेरे दिये हुए प्राण की तू रक्षा करना । प्राणशक्ति का अपव्यय न करना। २. (मे अपानं पाहि) = मुझसे दी गई अपानशक्ति को सुरक्षित रखना। यही तेरे दोषों को दूर करके तेरे शरीर को निर्दोष बनाएगी। ३. (मे व्यानं पाहि) = मेरी दी हुई व्यानशक्ति की भी रक्षा करना । यह सारे शरीर में गति करती हुई तेरे सारे स्नायुसंस्थान को ठीक रक्खेगी । तुझे किसी प्रकार का नर्वससिस्टम का रोग पीड़ित न करेगा। ४. (मे चक्षुः) = मुझसे दी गई आँख को (उर्व्या) = विस्तीर्णता से (विभाहि) = विशिष्ट दीप्तिवाला करना। तेरा दृष्टिकोण सदा विशाल हो, संकुचित न हो। ५. (मे श्रोत्रं श्लोकय) = मेरे द्वारा प्रदत्त श्रोत्र को तू उत्तम शब्दों का सुननेवाला बनाना [श्लोक: - यश:, पद्यम्] । यह यश की ही बातें सुनें तथा ज्ञान की वाणियाँ ही इसे प्रिय हों। ६. इस सबके लिए (अपः पिन्व) = [पुष्णीहि-म० ] जलों का ही शरीर में पोषण कर - प्यास लगने पर जलों से ही गले को सींच। (ओषधी: जिन्व) [ प्राप्नुहि ] = भोजन के लिए ओषधियों को प्राप्त कर । वनस्पति ही तेरा भोजन हो । ७. इस सात्त्विक भोजन से सात्त्विक वृत्तिवाला बनकर तू (द्विपात् अव) = सब मनुष्यों की रक्षा कर, सभी का प्रीणन करनेवाला हो। (चतुष्पात् पाहि) = गौ आदि चौपायों का भी तू रक्षण करनेवाला बन। ८. (दिवः) = ज्ञान की (वृष्टिम् ऐरय) = वृष्टि को तू प्रेरित कर। स्वयं ज्ञान प्राप्त करके औरों को भी ज्ञान देनेवाला बन अथवा (दिवः वृष्टिम् ऐरय) = तू आकाश से वृष्टि को प्रेरित कर । नियमपूर्वक यज्ञादि कर्मों को करता हुआ तू 'निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु' इस प्रार्थना को क्रियान्वित करनेवाला बन ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मन्त्र में उल्लिखित आठ आदेशों का हम पालन करें। प्राण, अपान, व्यान की रक्षा करें, विशाल दृष्टि व उत्तम श्रवणवाले बनें, जलों व ओषधियों का ही ग्रहण करें, मनुष्य व अन्य प्राणियों का ध्यान करें और अन्त में यज्ञादि से सामयिक वर्षा को सिद्ध करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. स्त्री-पुरुषांनी स्वयंवर विवाह करून आपापसात प्राणाप्रमाणे प्रिय आचरण, शास्त्रांचे श्रवण, औषधांचे सेवन व यज्ञाच्या अनुष्ठानाने वृष्टी करण्यास साह्यभूत ठरावे.

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    विषय

    पुनश्च पुढील मंत्रात तोच विषय प्रतिपादित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ -(पतीचे वाक्य पत्नीप्रत अथवा पत्नीचे वाक्य पतीप्रत) हे पति, वा हे पत्नी, तू (उर्व्या) अनेक प्रकारच्या उत्तम क्रियांद्वारे (सेवा, उपचार, नियमपालन आदीद्वारा) (मे) माझ्या (प्राणम्) नाभीपासून ऊर्ध्व दिशेला जाणार्‍या प्राणवायूचे (पाहि) रक्षण कर. (मे) माझ्या (अपानम्) नाभीच्या खाली गुदाद्वारे निघणार्‍या अपानवायूचे (पाहि) रक्षण कर आणि (मे) माझ्या (व्यानम्) शरीराच्या संधिस्थळांमधे राहणार्‍या व्यानवायूची (पाहि) रक्षा कर (पति ने पत्नीच्या आणि पत्नीचे पतिच्या विहार-विहार-आचार, नियमित जीवनचर्या, व्यायाम आदी प्रयत्नाद्वारे एकमेकाला प्रेरणा देत एकमेकाची प्रकृती उत्तम ठेवावी. आदी प्रयत्नाद्वारे एकमेकाला प्रेरणा देत एकमेकाची प्रकृती उत्तम ठेवावी. अशाप्रकारे प्राण, अपान, व्यान वायू नियंत्रित राहतील) (मे) माझ्या (चक्षु:) नेत्रांना (विभाहि) ज्योतियान्) कर (माझी दृष्टीशक्ती वाढविण्यासाठी सहाय्य कर) (मे) माझ्या (श्रोत्रम्) कानाला (श्लोकय) शास्त्रांच्या वचनांने परिपूरित कर (अप:) प्राणांना (पिन्व) पुष्टकर (ओषधी:) सोमलता, मन आदी औषधी (जिन्व) प्राप्त कर (घरात औषधींचा संग्रह कर) (चतुष्यात्) चार पाय असलेले गौ आदी पशूंची (पाहि) रक्षा कर आणि जसे सूर्य (दिव:) आपल्या प्रकाशाद्वारे (वृष्टिम्) वृष्टी करतो, त्याप्रमाणे घराची कामें (एरम) चांगल्याप्रकारे पूर्ण कर ॥8॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. स्त्री-पुरुषांना उचित आहे की त्यांनी स्वयंवर विवाह करून अत्यंत प्रेमाने संसार करावा. एकमेकास स्वप्राणसमान मानावे आणि प्रिय व्यवहार करीत, शास्त्र-श्रवण करीत, औषधी-सेवन करीत असावे आणि यज्ञाचे अनुष्ठान करून कामनेप्रमाणे वृष्टी होईल असे करावे. ॥8॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O husband, guard thou my pran, guard my apan. Guard my vyan through different nice devices. Illumine my eye. Fill my ear wit religious sermons. Strengthen my vital breaths. Get medicinal plants. Protect bipeds. Protect quadrupeds. Manage well the household affairs, as sun, with its brilliance pours the rain.

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    Meaning

    With the earth and the environment, protect and strengthen my pranic energy, protect and strengthen the apana air going down and out, protect and strengthen my vyana air circulating in the body-system. Give the divine light to my eye, the divine voice to my ear. Protect and promote the waters. Refresh and promote the greenery. Protect the bipeds (humans and birds). Protect the four-footed (animals). Bring the showers of rain from heaven.

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    Translation

    O Lord, preserve my in-breath. (1) Preserve my outbreath. (2) Preserve my through-breath. (3) Illuminate my vision far and wide. (4) Strengthen my power of hearing. (5) Give us plenty of water. (6) Let our herbs grow well. (7) Protect our bipeds. (8) Protect our quadrupeds. (9) Send rains from the sky. (10)

    Notes

    In the ritual, with this verse Pranabhrt bricks are laid by the sacrificer. Prana, in-breath. (Also vital breath). Арапат, out-breath. (Also downward passing wind). Vyanam, through- breath. Urvya, far and wide.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে পতি বা স্ত্রী ! তুমি (উর্ব্যা) বহু প্রকারের উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (মে) আমার (প্রাণম্) নাভি হইতে উপর গমনশীল প্রাণবায়ুর (পাহি) রক্ষা কর, (মে) আমার (অপানম্) নাভির নিম্নে গুহ্যেন্দ্রিয় মার্গ হইতে বাহির হওয়া অপান বায়ুর (পাহি) রক্ষা কর, (মে) আমার (ব্যানম্) বিবিধ প্রকারের শরীরের সন্ধিসকলে নিবাসকারী ব্যান বায়ুর রক্ষা কর, (মে) আমার (চক্ষুঃ) নেত্রদ্বয়কে (বিভাহি) প্রকাশিত কর, (মে) আমার (শ্রোত্রম্) কর্ণদ্বয়কে (শ্লোকয়) শাস্ত্রের শ্রবণ দ্বারা সংযুক্ত কর । (অপঃ) প্রাণদিগকে (পিন্ব) পুষ্ট করিয়া (ওষধীঃ) সোমলতা বা যবাদি ওষধি সকলকে (জিন্ব) প্রাপ্ত হও, (দ্বিপাৎ) মনুষ্যাদি দুই পদযুক্ত প্রাণিদিগের (অব) রক্ষা কর (চতুষ্পাৎ) চারি পদযুক্ত গাভি আদির (পাহি) রক্ষা কর এবং যেমন সূর্য্য (দিব্যঃ) স্বীয় প্রকাশ দ্বারা (বৃষ্টিম্) বর্ষা করে সেইরূপ গৃহকর্ম্মকে (এরয়) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত কর ॥ ৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । স্ত্রী-পুরুষদিগের উচিত যে, স্বয়ম্বর বিবাহ করিয়া অতি প্রেম সহ পরস্পর প্রাণের সমান প্রিয়াচরণ, শাস্ত্রসমূহের শ্রবণ, ওষধি আদির সেবন এবং যজ্ঞানুষ্ঠান দ্বারা বর্ষা করাইবে ॥ ৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প্রা॒ণং মে॑ পাহ্যপা॒নং মে॑ পাহি ব্যা॒নং মে॑ পাহি॒ চক্ষু॑র্মऽউ॒র্ব্যা বি ভা॑হি॒ শ্রোত্রং॑ মে শ্লোকয় । অ॒পঃ পি॒ন্বৌষ॑ধীর্জিন্ব দ্বি॒পাদ॑ব॒ চতু॑ষ্পাৎ পাহি দি॒বো বৃষ্টি॒মের॑য় ॥ ৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    প্রাণম্ম ইত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । দম্পতী দেবতে । ভুরিগতিজগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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