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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सभापतिर्देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    शिरो॑ मे॒ श्रीर्यशो॒ मुखं॒ त्विषिः॒ केशा॑श्च॒ श्मश्रू॑णि। राजा॑ मे प्रा॒णोऽअ॒मृत॑ꣳ स॒म्राट् चक्षु॑र्वि॒राट् श्रोत्र॑म्॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शिरः॑। मे॒। श्रीः। यशः॑। मुख॑म्। त्विषिः॑। केशाः॑। च॒। श्मश्रू॑णि। राजा॑। मे॒। प्रा॒णः। अ॒मृत॑म्। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। चक्षुः॑। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। श्रोत्र॑म् ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिरो मे श्रीर्यशो मुखन्त्विषिः केशाश्च श्मश्रूणि । राजा मे प्राणो अमृतँ सम्राट्चक्षुर्विराट्श्रोत्रम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शिरः। मे। श्रीः। यशः। मुखम्। त्विषिः। केशाः। च। श्मश्रूणि। राजा। मे। प्राणः। अमृतम्। सम्राडिति सम्ऽराट्। चक्षुः। विराडिति विऽराट्। श्रोत्रम्॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 5
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    भावार्थ -
    हे प्रजाजनो ! राज्य में अभिषिक्त (मे) मुझ राजा की (श्री:) शोभा, ऐश्वर्य (शिरः) मेरे शिर के समान प्रतिष्ठारूप है | ( यशःमुखम् ) यश, मुख के समान दर्शनीय हैं । (त्विषिः) ओज, कान्ति, पराक्रम, शौर्य ( श्मश्रूणि केशाः च ) शिर के केश और मूछों के समान तेजस्विता के सूचक हैं । ( मे ) मुझ राष्ट्र का ( प्राणः ) प्राण (राजा) का पद या स्वयं राजा (अमृतम् ) जीवन रूप है । (सम्राट् ) सम्राट् का पद (चक्षुः) आंख के समान सर्व साक्षीरूप हैं । ( विराट् ) विविध विद्वान् सभासदों से प्रकाशमान राजसभा ( श्रोत्रम् ) शरीर में श्रोत्र के समान प्रजा राजा के समस्त व्यवहारों को श्रवण करने वाला हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिः। सभेशः । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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