ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 23
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
पर्शु॑र्ह॒ नाम॑ मान॒वी सा॒कं स॑सूव विंश॒तिम् । भ॒द्रं भ॑ल॒ त्यस्या॑ अभू॒द्यस्या॑ उ॒दर॒माम॑य॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठपशुः॑ । ह॒ । नाम॑ । मा॒न॒वी । सा॒कम् । स॒सू॒व॒ । विं॒श॒तिम् । भ॒द्रम् । भ॒ल॒ । त्यस्यै॑ । अ॒भू॒त् । यस्याः॑ । उ॒दर॑म् । आम॑यत् । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् । भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठपशुः । ह । नाम । मानवी । साकम् । ससूव । विंशतिम् । भद्रम् । भल । त्यस्यै । अभूत् । यस्याः । उदरम् । आमयत् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 23
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 8
विषय - बुद्धिशक्ति से २० अंगुलियों के तुल्य २० प्राणों का चालन और प्रकृति से २१ विकृतियों की उत्पत्ति। ‘मानवी पर्शु’ का रहस्य।
भावार्थ -
(मानवी पर्शुः ह नाम) मननशील,संकल्प विकल्प करने वाले आत्मा वा पुरुष की विचार शक्ति या बुद्धि ही ‘पर्शु’ नाम की है जो (साकं) एक साथ ही (विशतिं ससूव) हाथ और पैर की २० अंगुलियों के समान (विंशतिं) प्रकृति के २० विकारों को एक साथ उत्पन्न करती है। (त्यस्याः भल भद्रम् अभूत्) उस स्त्री का तो सदा कल्याण होता है, (यस्या) जिस माता का (उदरम्) पेट (आमयत्) पीड़ित होता है अर्थात् जो अपने गर्भ से देही आत्मा को प्रसव करती हैं। इसी प्रकार प्रकृति भी ‘मनु’ अर्थात् सर्वजगत्-स्तम्भक, सर्वस्तुत्य प्रभु की वह स्त्रीतुल्य प्रकृति ‘पर्शु’ अर्थात् परम सूक्ष्म रूप में व्यापक होती है। उसका रूप ‘भद्र’ सुखकारी है जो २१ विकृतियों को उत्पन्न करती है (यस्याः उदरम्) जिसके मध्य भाग को (आमयत्) प्रभु अपनी शक्ति से गति युक्त करता और उसमें से अनेक प्रकृति-विकृतियों को उत्पन्न करके उस जगत् को बनाता, चलाता और उनको व्यवस्था से नियन्त्रित करता है। वही (इन्द्रः) प्रभु परमेश्वर (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से उत्कृष्ट है। दश प्राण, दश प्राणायातन ये २० अंग, अथवा प्रकृति के २० विकार अहंकार, पांच स्थूलभूत, पांच सूक्ष्मभूत और ४ अन्तःकरण,और स्वयं समष्टि देह। इति चतुर्थो वर्गः॥
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥
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