Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 87 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पायुः देवता - अग्नी रक्षोहा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    र॒क्षो॒हणं॑ वा॒जिन॒मा जि॑घर्मि मि॒त्रं प्रथि॑ष्ठ॒मुप॑ यामि॒ शर्म॑ । शिशा॑नो अ॒ग्निः क्रतु॑भि॒: समि॑द्ध॒: स नो॒ दिवा॒ स रि॒षः पा॑तु॒ नक्त॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र॒क्षः॒ऽहन॑म् । वा॒जिन॑म् । आ । जि॒घ॒र्मि॒ । मि॒त्रम् । प्रथि॑ष्ठम् । उप॑ । या॒मि॒ । शर्म॑ । शिशा॑नः । अ॒ग्निः । क्रतु॑ऽभिः । सम्ऽइ॑द्धः । सः । नः॒ । दिवा॑ । सः । रि॒षः । पा॒तु॒ । नक्त॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रक्षोहणं वाजिनमा जिघर्मि मित्रं प्रथिष्ठमुप यामि शर्म । शिशानो अग्निः क्रतुभि: समिद्ध: स नो दिवा स रिषः पातु नक्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रक्षःऽहनम् । वाजिनम् । आ । जिघर्मि । मित्रम् । प्रथिष्ठम् । उप । यामि । शर्म । शिशानः । अग्निः । क्रतुऽभिः । सम्ऽइद्धः । सः । नः । दिवा । सः । रिषः । पातु । नक्तम् ॥ १०.८७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    मैं (रक्षः-हणं) दुष्ट राक्षसों को, जो मुझ को मेरे उदेश्य तक पहुंचने से रोके रखते हैं उनका नाश करने वाले, (वाजिनं) वेगवान्, बलवान्, (मित्रम्) मुझे मृत्यु से बचाने वाले (प्रथिष्ठं) अति पृथु, महान् उस प्रभु को मैं (आ जिधर्मि) सब ओर अग्नि के तुल्य ही प्रदीप्त, प्रज्ज्वलित कर लूं जिससे मैं (शर्म उप यामि) सुख प्राप्त करूं। (शिशानः) सदा तीक्ष्ण (अग्निः) अग्नि के समान पापों को दग्ध करने वाला, सत्-स्वरूप, प्रकाशमय प्रभु (क्रतुभिः) नाना कर्मों और ज्ञानों द्वारा (समिद्धः) अति देदीप्त हो। (स) वह (नः) हमें (दिवा) दिन में और (सः नक्तं) वही रात में भी (नः) हमें (रिषः) हिंसक, दुष्ट स्वभाव के आक्रामक से (पातु) रक्षा करे। जिस प्रकार अग्नि जंगल के समीप में जलता हुआ चोर, व्याघ्र आदि से भी बचाता है उसी प्रकार हृदय में प्रभु की ज्योति भी जलती हुई लोभ, क्रोध, कामादि पापों से बचाती है। वह प्रभु सर्वत्र सदा हमारी रक्षा करता है, उसके आगे दुष्टों की नहीं चलती।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top