ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 74/ मन्त्र 1
कूष्ठो॑ देवावश्विना॒द्या दि॒वो म॑नावसू। तच्छ्र॑वथो वृषण्वसू॒ अत्रि॑र्वा॒मा वि॑वासति ॥१॥
स्वर सहित पद पाठकूऽस्थः॑ । दे॒वौ॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । अ॒द्य । दि॒वः । म॒ना॒व॒सू॒ इति॑ । तत् । श्र॒व॒थः॒ । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । अत्रिः॑ । वा॒म् । आ । वि॒वा॒स॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कूष्ठो देवावश्विनाद्या दिवो मनावसू। तच्छ्रवथो वृषण्वसू अत्रिर्वामा विवासति ॥१॥
स्वर रहित पद पाठकूऽस्थः। देवौ। अश्विना। अद्य। दिवः। मनावसू इति। तत्। श्रवथः। वृषण्ऽवसू इति वृषण्ऽवसू। अत्रिः। वाम्। आ। विवासति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 74; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - दो अश्वी, गृहस्थ स्त्री पुरुषों को उपदेश ।
भावार्थ -
भा०-हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (देवौ ) दानशील, सत्य वचन को प्रकाशित करने वाले, एक दूसरे की कामना करने वाले होकर ( कू-स्थः ) भूमि पर विराजते हो । आप दोनों (दिवः) उत्तम व्यवहार, ज्ञान प्रकाश और उत्तम कामना के ( मनावसू ) मन और ज्ञान को वसु अर्थात् धन रूप से रखने और ( दिवः मनावसू ) तेजोमय प्रभु के ज्ञान के धनी होवो । हे ( वृषण्वसू ) हे वृषन् ! हे वसु ! हे वीर्यसेचक पुरुष, एवं पुरुष को अपने आश्रय बसाने वाली स्त्री ! तुम दोनों (तत्) उस ज्ञानोपदेश का सदा ( श्रवथः ) श्रवण किया करो जिसको ( अत्रिः ) त्रिविध दुःखों से पारंगत और गृहस्थ वा तीन वर्णों से भिन्न चतुर्थाश्रमी विद्वान् ( वाम् ) आप दोनों को ( आ विवासति ) आदर पूर्वक उपदेश करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आत्रेय ऋषिः ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्दः — १, २, १० विराडनुष्टुप् अनुष्टुप, । ४, ५, ६, ९ निचृदनुष्टुप् । ७ विराडुष्णिक् । ८ निचृदुष्णिक् ॥ एकादशर्चं सुक्तम् ।।
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