ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
प्राग्नये॑ त॒वसे॑ भरध्वं॒ गिरं॑ दि॒वो अ॑र॒तये॑ पृथि॒व्याः। यो विश्वे॑षाम॒मृता॑नामु॒पस्थे॑ वैश्वान॒रो वा॑वृ॒धे जा॑गृ॒वद्भिः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । अ॒ग्नये॑ । त॒वसे॑ । भ॒र॒ध्व॒म् । गिर॑म् । दि॒वः । अ॒र॒तये॑ । पृ॒थि॒व्याः । यः । विश्वे॑षाम् । अ॒मृता॑नाम् । उ॒पऽस्थे॑ । वै॒श्वा॒न॒रः । व॒वृ॒धे । जा॒गृ॒वत्ऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राग्नये तवसे भरध्वं गिरं दिवो अरतये पृथिव्याः। यो विश्वेषाममृतानामुपस्थे वैश्वानरो वावृधे जागृवद्भिः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। अग्नये। तवसे। भरध्वम्। गिरम्। दिवः। अरतये। पृथिव्याः। यः। विश्वेषाम्। अमृतानाम्। उपऽस्थे। वैश्वानरः। ववृधे। जागृवत्ऽभिः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञाग्निवत् शासक की परिचर्या ।
भावार्थ -
( यः ) जो ( विश्वेषाम् ) समस्त ( अमृतानाम् ) नाश न होने वाले अग्नि, आकाश आदि नित्य पदार्थों और जीवात्माओं के (उपस्थे) समीप में ( वैश्वानरः ) समस्त मनुष्यों से उपासित, सब में विद्यमान है और जो ( जागृवद्भिः ) अविद्या की नींद त्याग कर जागने वाले ज्ञानी पुरुषों से उपासित होता और ( ववृधे ) सबको बढ़ाता, और स्वयं भी सबसे महान् है । उस ( दिवः पृथिव्याः अरतये ) सूर्य और पृथिवी में व्यापक, उनके भी स्वामी, ( तवसे ) अनन्त बलशाली, ( अग्नये ) अग्नि के समान प्रकाशस्वरूप प्रभु की उपासना के लिये ( गिरं प्र भरध्वम् ) वाणी का प्रयोग करो, उसकी स्तुति प्रार्थना किया करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ वैश्वानरो देवता॥ छन्दः –१, ४ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५, ७ स्वराट् पंक्तिः। ६ पंक्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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