Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 5 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वैश्वानरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्राग्नये॑ त॒वसे॑ भरध्वं॒ गिरं॑ दि॒वो अ॑र॒तये॑ पृथि॒व्याः। यो विश्वे॑षाम॒मृता॑नामु॒पस्थे॑ वैश्वान॒रो वा॑वृ॒धे जा॑गृ॒वद्भिः॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒ग्नये॑ । त॒वसे॑ । भ॒र॒ध्व॒म् । गिर॑म् । दि॒वः । अ॒र॒तये॑ । पृ॒थि॒व्याः । यः । विश्वे॑षाम् । अ॒मृता॑नाम् । उ॒पऽस्थे॑ । वै॒श्वा॒न॒रः । व॒वृ॒धे । जा॒गृ॒वत्ऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राग्नये तवसे भरध्वं गिरं दिवो अरतये पृथिव्याः। यो विश्वेषाममृतानामुपस्थे वैश्वानरो वावृधे जागृवद्भिः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। अग्नये। तवसे। भरध्वम्। गिरम्। दिवः। अरतये। पृथिव्याः। यः। विश्वेषाम्। अमृतानाम्। उपऽस्थे। वैश्वानरः। ववृधे। जागृवत्ऽभिः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कस्य प्रशंसोपासने कर्त्तव्ये इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो वैश्वानरो जगदीश्वरे दिवः पृथिव्या विश्वेषाममृतानामुपस्थे वावृधे जागृवद्भिरेव गम्यते तस्मै तवसेऽरतयेऽग्नये गिरं प्र भरध्वम् ॥१॥

    पदार्थः

    (प्र) (अग्नये) परमात्मने (तवसे) बलिष्ठाय (भरध्वम्) (गिरम्) योगसंस्कारयुक्तां वाचम् (दिवः) सूर्यस्य (अरतये) प्राप्ताय (पृथिव्याः) भूमेर्मध्ये (यः) (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (अमृतानाम्) नाशरहितानां जीवानां प्रकृत्यादीनां वा (उपस्थे) समीपे (वैश्वानरः) विश्वेषु नरेषु राजमानः (वावृधे) वर्धयति (जागृवद्भिः) अविद्यानिद्रात उत्थातृभिः ॥१॥

    भावार्थः

    यदि सर्वे मनुष्याः सर्वेषां धर्त्तारं योगिभिर्गम्यं परमात्मानमुपासीरंस्तर्हि ते सर्वतो वर्धन्ते ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब नौ ऋचावाले पाँचवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में किसकी प्रशंसा और उपासना करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो (यः) जो (वैश्वानरः) सम्पूर्ण मनुष्यों में प्रकाशमान जगदीश्वर (दिवः) सूर्य वा (पृथिव्याः) पृथिवी के बीच (विश्वेषाम्) सब (अमृतानाम्) नाशरहित जीवात्माओं वा प्रकृति आदि के (उपस्थे) समीप में (वावृधे) बढ़ाता है (जागृवद्भिः) अविद्या निद्रा से उठनेवाले ही उसको प्राप्त होते उस (तवसे) बलिष्ठ (अरतये) व्याप्त (अग्नये) परमात्मा के लिये (गिरम्) योगसंस्कार से युक्त वाणी को (प्र, भरध्वम्) धारण करो अर्थात् स्तुति प्रार्थना करो ॥१॥

    भावार्थ

    यदि सब मनुष्य सब के धर्त्ता योगियों को प्राप्त होने योग्य परमेश्वर की उपासना करें तो वे सब ओर से वृद्धि को प्राप्त हों ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यज्ञाग्निवत् शासक की परिचर्या ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( विश्वेषाम् ) समस्त ( अमृतानाम् ) नाश न होने वाले अग्नि, आकाश आदि नित्य पदार्थों और जीवात्माओं के (उपस्थे) समीप में ( वैश्वानरः ) समस्त मनुष्यों से उपासित, सब में विद्यमान है और जो ( जागृवद्भिः ) अविद्या की नींद त्याग कर जागने वाले ज्ञानी पुरुषों से उपासित होता और ( ववृधे ) सबको बढ़ाता, और स्वयं भी सबसे महान् है । उस ( दिवः पृथिव्याः अरतये ) सूर्य और पृथिवी में व्यापक, उनके भी स्वामी, ( तवसे ) अनन्त बलशाली, ( अग्नये ) अग्नि के समान प्रकाशस्वरूप प्रभु की उपासना के लिये ( गिरं प्र भरध्वम् ) वाणी का प्रयोग करो, उसकी स्तुति प्रार्थना किया करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ वैश्वानरो देवता॥ छन्दः –१, ४ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५, ७ स्वराट् पंक्तिः। ६ पंक्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वैश्वानरो वावृधे जागृवद्भिः

    पदार्थ

    [१] (तवसे) = उस प्रवृद्ध अग्नये अग्रेणी प्रभु के लिये (गिरं प्रभरध्वम्) = स्तुतिवाणी को धारण करो। उस प्रभु का स्तवन करो जो (दिवः पृथिव्याः) = द्युलोक व पृथिवीलोक के (प्रति अरतये) = गमनवाले हैं। जिस प्रभु की द्युलोक व पृथिवीलोक में सर्वत्र अव्याहत गति है, उस प्रभु का हम स्तवन करें। प्रभु सर्वदा सर्वत्र प्राप्त हैं। [२] (यः) = जो प्रभु (विश्वेषाम्) = सब (अमृतानाम्) = विषयवासनाओं के पीछे न मरनेवाले व्यक्तियों के (उपस्थे) = उपस्थान में, समीपता में होते हैं, अर्थात् प्रभु इन अमृत पुरुषों को ही प्राप्त होते हैं। (वैश्वानरः) = ये सब नरों का हित करनेवाले प्रभु (जागृवद्भिः) = इस संसार-यात्रा में जागनेवाले मनुष्यों से (वावृधे) = अपने हृदयों में बढ़ाये जाते हैं। सावधान पुरुष ही, अपने को वासनाओं के आक्रमण से आक्रान्त न होने देते हुए, अपने हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- उस प्रभु का हम स्तवन करें जो सदा प्रवृद्ध हैं, द्युलोक व पृथिवीलोक में गतिवाले हैं, विषयों से अनाक्रान्त पुरुषों को प्राप्त होते हैं और सदा जागरित पुरुषों से अपने हृदयों में जिनका प्रकाश देखा जाता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात ईश्वराच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्व सूक्तार्थाची संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जर माणसांनी सर्वांना धारण करणाऱ्या, योग्यांना प्राप्त होणाऱ्या परमेश्वराची उपासना केली तर सगळीकडून वृद्धी होईल. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Bear and offer words of praise and thankfulness in honour of mighty Agni which, ever active without rest at the heart of heaven and earth and all things beyond destruction, is the living light and life of the world, Vaishvanara, and rejoices with all those that are awake and keeps them alive and growing.$Note: Vaishvanara Agni is the divine fire and vitality of the earth and the terrestrial sphere, Vayu is the electric energy of the middle region, and Aditya, Taijas is the light and life of the heavenly solar region of the universe.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top