ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
पृ॒ष्टो दि॒वि धाय्य॒ग्निः पृ॑थि॒व्यां ने॒ता सिन्धू॑नां वृष॒भः स्तिया॑नाम्। स मानु॑षीर॒भि विशो॒ वि भा॑ति वैश्वान॒रो वा॑वृधा॒नो वरे॑ण ॥२॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒ष्टः । दि॒वि । धायि॑ । अ॒ग्निः । पृ॒थि॒व्याम् । ने॒ता । सिन्धू॑नाम् । वृ॒ष॒भः । स्तिया॑नाम् । सः । मानु॑षीः । अ॒भि । विशः॑ । वि । भा॒ति॒ । वै॒श्वा॒न॒रः । व॒वृ॒धा॒नः । वरे॑ण ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृष्टो दिवि धाय्यग्निः पृथिव्यां नेता सिन्धूनां वृषभः स्तियानाम्। स मानुषीरभि विशो वि भाति वैश्वानरो वावृधानो वरेण ॥२॥
स्वर रहित पद पाठपृष्टः। दिवि। धायि। अग्निः। पृथिव्याम्। नेता। सिन्धूनाम्। वृषभः। स्तियानाम्। सः। मानुषीः। अभि। विशः। वि। भाति। वैश्वानरः। ववृधानः। वरेण ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
विषय - वैश्वानर प्रभु का वर्णन ।
भावार्थ -
जो ( अग्निः ) अग्निवत् स्वयं प्रकाश, महान् आत्मा, ( दिवि पृथिव्यां) तेजस्वी पदार्थ सूर्य आदि, और पृथिवी आदि प्रकाश रहित पदार्थो में भी (धायि ) अग्निवत् उनको धारण करता है, जो ( सिन्धूनां नेता) बहने वाले प्रवाहों, वेग से गति करने वाले सूर्यादि का भी संचालक है जो ( स्तियानाम् वृषभः ) अप् अर्थात् प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं के बीच विद्यमान और अनन्त बलशाली, उनको नियम, व्यवहार में बांधने वाला है, ( सः ) वह ( अग्निः ) सबका अग्र नायक, सर्वोत्तम संचालक ही ( वैश्वानरः ) सबको ठीक २ मार्ग में चलाने वाला होने से 'वैश्वानर' कहाता है। वही प्रभु (मानुषीः विशः) समस्त मनुष्य प्रजाओं को भी (अभि वि भाति) प्रकाशित करता और उनमें स्वयं भी प्रकाशित होता है। वह समस्त मनुष्यों में विद्यमान होने से भी 'वैश्वानर' है । वह (वरेण ) सर्वश्रेष्ठ स्वभाव से ही ( ववृधानः ) सदा सबको बढ़ाने हारा है । स्वयं भी सबसे महान् है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ वैश्वानरो देवता॥ छन्दः –१, ४ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५, ७ स्वराट् पंक्तिः। ६ पंक्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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