ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
त्वद्भि॒या विश॑ आय॒न्नसि॑क्नीरसम॒ना जह॑ती॒र्भोज॑नानि। वैश्वा॑नर पू॒रवे॒ शोशु॑चानः॒ पुरो॒ यद॑ग्ने द॒रय॒न्नदी॑देः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठत्वत् । भि॒या । विशः॑ । आ॒य॒न् । असि॑क्नीः । अ॒स॒म॒नाः । जह॑तीः । भोज॑नानि । वैश्वा॑नर । पू॒रवे॑ । शोशु॑चानः । पुरः॑ । यत् । अ॒ग्ने॒ । द॒रय॑न् । अदी॑देः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वद्भिया विश आयन्नसिक्नीरसमना जहतीर्भोजनानि। वैश्वानर पूरवे शोशुचानः पुरो यदग्ने दरयन्नदीदेः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठत्वत्। भिया। विशः। आयन्। असिक्नीः। असमनाः। जहतीः। भोजनानि। वैश्वानर। पूरवे। शोशुचानः। पुरः। यत्। अग्ने। दरयन्। अदीदेः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
विषय - मुक्तिदाता प्रभु ।
भावार्थ -
हे ( वैश्वानर ) समस्त मनुष्यों के हृदयों में विराजमान, सबके हितू ! हे ( अग्ने ) सबके पूर्व विद्यमान ! अग्निवत् स्वयंप्रकाश, सर्वप्रकाशक ( यत् ) जो ( पूरवे ) मनुष्यमात्र के लिये ( शोशुचानः ) प्रकाशक ज्ञानरूप में प्रकाश करता हुआ, ( पुरः दरयन् ) ज्ञान-वज्र से देह रूप आत्मा के पुरों अर्थात् देह-बन्धनों को काटता हुआ ( अदीदे: ) ज्ञान को प्रकाशित करता है ( त्वद् भिया ) तेरे ही भय से ( असिक्नीः ) रात्रि के समान अन्धकारमय दशाओं को प्राप्त (विशः) जीव प्रजाएं भी ( असमना ) एक समान चित्त न होकर ( भोजनानि जहती: ) नाना भोग्य पदार्थों को त्याग कर ( आयन् ) तेरी शरण आती हैं । वीर राजा के पक्ष में - वीर राजा तेजस्वी होकर ( पुरः दरयन् अदीदेः ) शत्रु के किलों, नगरों को तोड़ता हुआ प्रताप से चमकता है उस में भय से शत्रु सेनाएं भोजनों तक त्याग कर (असमनाः ) संग्राम छोड़ कर ( असिक्नी: आयन् ) अन्धकारमय गुफाओं का आश्रय लेती हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ वैश्वानरो देवता॥ छन्दः –१, ४ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५, ७ स्वराट् पंक्तिः। ६ पंक्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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