ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
तव॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौर्वैश्वा॑नर व्र॒तम॑ग्ने सचन्त। त्वं भा॒सा रोद॑सी॒ आ त॑त॒न्थाज॑स्रेण शो॒चिषा॒ शोशु॑चानः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । त्रि॒ऽधातु॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः । वैश्वा॑नर । व्र॒तम् । अ॒ग्ने॒ । स॒च॒न्त॒ । त्वम् । भा॒सा । रोद॑सी॒ इति॑ । आ । त॒त॒न्थ । अज॑स्रेण । शो॒चिषा॑ । शोशु॑चानः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव त्रिधातु पृथिवी उत द्यौर्वैश्वानर व्रतमग्ने सचन्त। त्वं भासा रोदसी आ ततन्थाजस्रेण शोचिषा शोशुचानः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठतव। त्रिऽधातु। पृथिवी। उत। द्यौः। वैश्वानर। व्रतम्। अग्ने। सचन्त। त्वम्। भासा। रोदसी इति। आ। ततन्थ। अजस्रेण। शोचिषा। शोशुचानः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
विषय - सर्व व्यापक प्रभु ।
भावार्थ -
( अग्ने ) प्रकाशक ! हे (वैश्वानर ) समस्त संसार के चलाने हारे, (त्रि-धातु) तीनों गुणों को धारण करने वाली, परम सूक्ष्मतत्व प्रकृति और ( पृथिवी उत द्यौः ) पृथिवी अर्थात् प्रकाशसहित समस्त पदार्थ भी ( तव व्रतम् ) तेरी ही कर्म-व्यवस्था को ( सचन्ते ) धारण करते हैं । वे तेरे ही सर्वोपरि शक्ति के आश्रय पर उसमें नित्य सम्बद्ध हैं । हे प्रभो ! ( त्वं ) तू ( भासा ) अपनी दीप्ति से ( रोदसी ) भूमि और आकाश, सर्वत्र (आ ततन्थ) व्याप रहा है । तू ( अजस्रेण ) अविनाशी, निरन्तर स्थिर रहने वाले ( शोचिषा ) प्रकाश, तेज से सूर्यवत् ( शोशुचान: ) प्रकाशमान रहता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ वैश्वानरो देवता॥ छन्दः –१, ४ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५, ७ स्वराट् पंक्तिः। ६ पंक्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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