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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वैश्वानरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तव॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौर्वैश्वा॑नर व्र॒तम॑ग्ने सचन्त। त्वं भा॒सा रोद॑सी॒ आ त॑त॒न्थाज॑स्रेण शो॒चिषा॒ शोशु॑चानः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । त्रि॒ऽधातु॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः । वैश्वा॑नर । व्र॒तम् । अ॒ग्ने॒ । स॒च॒न्त॒ । त्वम् । भा॒सा । रोद॑सी॒ इति॑ । आ । त॒त॒न्थ । अज॑स्रेण । शो॒चिषा॑ । शोशु॑चानः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव त्रिधातु पृथिवी उत द्यौर्वैश्वानर व्रतमग्ने सचन्त। त्वं भासा रोदसी आ ततन्थाजस्रेण शोचिषा शोशुचानः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव। त्रिऽधातु। पृथिवी। उत। द्यौः। वैश्वानर। व्रतम्। अग्ने। सचन्त। त्वम्। भासा। रोदसी इति। आ। ततन्थ। अजस्रेण। शोचिषा। शोशुचानः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स जगदीश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे वैश्वानराग्ने ! तव व्रतं त्रिधातु पृथिवी उत द्यौश्च सचन्त यस्त्वमजस्रेण शोचिषा शोशुचानः सन् स्वभासा रोदसी आततन्थ तमेव त्वं वयं सततं ध्यायेम ॥४॥

    पदार्थः

    (तव) जगदीश्वरस्य (त्रिधातु) त्रयस्सत्त्वादयो गुणा धातवो धारका यस्मिंस्तदव्यक्तं प्रकृत्यात्मकं जगत्कारणम् (पृथिवी) भूमिः (उत) (द्यौः) सूर्यः (वैश्वानर) विश्वस्य नायक (व्रतम्) कर्म (अग्ने) सर्वप्रकाशक (सचन्तः) सम्बध्नन्ति (त्वम्) (भासा) स्वकीयप्रकाशेन (रोदसी) सूर्यादिप्रकाशकं पृथिव्याद्यप्रकाशं द्विविधं जगत् (आततन्थ) सर्वतस्तनोषि (अजस्रेण) निरन्तरेणान्नादिना (शोचिषा) स्वप्रकाशेन (शोशुचानः) प्रकाशमानः ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यस्याधारे पृथिवी भूमिः सूर्यश्च स्थित्वा स्वकार्य्यं कुरुतः न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभातीति कठवल्यामिति वेदितव्यम्। (कठो०२.५.१५) ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वैश्वानर) सबके नायक (अग्ने) सबके प्रकाशक ईश्वर ! (तव) आपके (व्रतम्) कर्म और (त्रिधातु) धारण करनेवाले तीन सत्त्वादि गुणोंवाले प्रकृत्यादिरूप अव्यक्त जगत् के कारण को (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) सूर्य (सचन्त) सम्बद्ध करते हैं जो (त्वम्) आप (अजस्रेण) निरन्तर अन्नादि (शोचिषा) अपने प्रकाश से (शोशुचानः) प्रकाशमान हुए (भासा) अपने प्रकाश से (रोदसी) सूर्य्यादि प्रकाशवाले और पृथिव्यादि प्रकाशरहित दो प्रकार के जगत् को (आ, ततन्थ) सब ओर से विस्तृत करते हैं, उन्हीं आपका हम लोग निरन्तर ध्यान करें ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिसके आधार में पृथिवी सूर्य स्थित होके अपना कार्य करते हैं, कठोपनिषद् में लिखा है कि उस परमात्मा को जानने के लिये सूर्य, चन्द्रमा, बिजुली वा अग्नि आदि कुछ प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु उसी प्रकाशित परमेश्वर के प्रकाश से सब प्रकाशित होते हैं ॥४॥

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    विषय

    सर्व व्यापक प्रभु ।

    भावार्थ

    ( अग्ने ) प्रकाशक ! हे (वैश्वानर ) समस्त संसार के चलाने हारे, (त्रि-धातु) तीनों गुणों को धारण करने वाली, परम सूक्ष्मतत्व प्रकृति और ( पृथिवी उत द्यौः ) पृथिवी अर्थात् प्रकाशसहित समस्त पदार्थ भी ( तव व्रतम् ) तेरी ही कर्म-व्यवस्था को ( सचन्ते ) धारण करते हैं । वे तेरे ही सर्वोपरि शक्ति के आश्रय पर उसमें नित्य सम्बद्ध हैं । हे प्रभो ! ( त्वं ) तू ( भासा ) अपनी दीप्ति से ( रोदसी ) भूमि और आकाश, सर्वत्र (आ ततन्थ) व्याप रहा है । तू ( अजस्रेण ) अविनाशी, निरन्तर स्थिर रहने वाले ( शोचिषा ) प्रकाश, तेज से सूर्यवत् ( शोशुचान: ) प्रकाशमान रहता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ वैश्वानरो देवता॥ छन्दः –१, ४ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५, ७ स्वराट् पंक्तिः। ६ पंक्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु का 'त्रिधातु व्रतम्'

    पदार्थ

    [१] हे वैश्वानर (अग्ने) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले अग्रणी प्रभो ! (तव) = आपके (त्रिधातु) = 'देव मनुष्य पशु' तीनों का धारण करनेवाले (व्रतम्) = कर्म का पृथिवी (उत द्यौः) = यह पृथिवी और द्युलोक (सचन्त) = सेवन करते हैं। अर्थात् आपकी व्यवस्था में ये द्यावापृथिवी 'देव, मनुष्य व पशु' सभी का धारण करते हैं। [२] (त्वम्) = आप (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (भासा) = दीप्ति से (आततन्थ) = विस्तृत करते हैं। सर्वत्र द्युलोक व पृथिवीलोक में प्रकाश को आप फैलाते हैं और (अजस्त्रेण) = न क्षीण होनेवाली (शोचिषा) = ज्ञानदीप्ति से जीवों के हृदयों को (शोशुचान:) = दीप्त व पवित्र करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ-द्युलोक व पृथिवीलोक प्रभु की व्यवस्था के अनुसार 'देव, मनुष्य व पशु' तीनों का धारण करते हैं। प्रभु द्यावापृथिवी को सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित करते हैं और उपासकों के हृदयों को अक्षीण ज्ञान-ज्योति से पवित्र करते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्याच्या आधारे पृथ्वी, सूर्य स्थित होऊन आपले कार्य करतात व कठोपनिषदाप्रमाणे त्या परमेश्वराला सूर्य, चंद्र, विद्युत किंवा अग्नी इत्यादी जाणू शकत नाहीत तर त्याच प्रकाशित परमेश्वराच्या प्रकाशाने सर्व प्रकट होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Vaishvanara Agni, lord omnipresent and leading light of the universe, the heaven and earth and the threefold Prakrti (Nature) of Sattva, Rajas and Tamas, that is, mind, motion and matter, all these observe and move by your law. You pervade and enliven heaven and earth and the middle regions with your self refulgence, shining, illuminating and purifying the world by your eternal heat and light.

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