अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - दैवी जगती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्मै॒ प्राच्या॑दि॒शः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । प्राच्या॑: । दि॒श: ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मै प्राच्यादिशः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै । प्राच्या: । दिश: ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
विषय - व्रात्य प्रजापति का राजतन्त्र।
भावार्थ -
(प्राच्याः दिशः) प्राची दिशा में (तस्मै) उस व्रात्य के (वासन्तौ मासौ) वसन्त ऋतु के दोनों मासों को (गोप्तारौ अकुर्वन्) देवों ने रक्षक कल्पित किया। (बृहत् च रथन्तरं च) बृहत् और रथन्तर दोनों को (अनुष्ठातारौ) अनुष्ठाता, कर्मकर भृत्य या सेवक कल्पित किया। (यः एवं वेद) जो पुरुष व्रात्य प्रजापति के इस स्वरूप का भली प्रकार साक्षात् कर लेता है (एनं) उसको (वासन्तौ मासौ) वसन्त के दोनों मास (प्राच्या दिशः) प्राची दिशा से (गोपायतः) रक्षा करते हैं। (बृहत् च) बृहत् और (रथन्तरं च) रथन्तर दोनों (अनु तिष्ठतः) उसकी सेवा करते हैं।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १, ५, ६ (द्वि०) दैवी जगती, २, ३, ४ (प्र०) प्राजापत्या गायत्र्य, १ (द्वि०), ३ (द्वि०) आर्च्यनुष्टुभौ, १ (तृ०), ४ (तृ०) द्विपदा प्राजापत्या जगती, २ (द्वि०) प्राजापत्या पंक्तिः, २ (तृ०) आर्ची जगती, ३ (तृ०) भौमार्ची त्रिष्टुप, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, ५ (द्वि०) प्राजापत्या बृहती, ५ (तृ०), ६ (तु०) द्विपदा आर्ची पंक्तिः, ६ (द्वि०) आर्ची उष्णिक्। अष्टादशर्चं चतुर्थ पर्यायसूक्तम्॥
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