अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - विराट् गायत्री
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
वि॒द्म ते॑स्वप्न ज॒नित्रं॒ ग्राह्याः॑ पु॒त्रोऽसि॑ य॒मस्य॒ कर॑णः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्म । ते॒ । स्व॒प्न॒ । ज॒नित्र॑म् । ग्राह्या॑: । पु॒त्र: । अ॒सि॒ । य॒मस्य॑ । कर॑ण: ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्म तेस्वप्न जनित्रं ग्राह्याः पुत्रोऽसि यमस्य करणः ॥
स्वर रहित पद पाठविद्म । ते । स्वप्न । जनित्रम् । ग्राह्या: । पुत्र: । असि । यमस्य । करण: ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - दुःस्वप्न और मृत्यु से बचने के उपाय।
भावार्थ -
हे (स्वप्न) स्वप्न ! (ते जनित्रं विद्म) हम तेरे उत्पत्ति स्थान को जानते हैं तू (ग्राह्याः) ग्राही अंगों को शिथिल करने वाली शक्ति का (पुत्रः असि=) पुत्र है, उससे उत्पन्न होता है। तू (यमस्य करणः) यम बांध लेने वाले का करण साधन है। तू (अन्तकः असि) ‘अन्तक’ है सब चेतना वृत्तियों का अन्त करने वाला है। तू (मृत्युः असि) मृत्यु है। हे (स्वप्न) स्वप्न ! (तं त्वा) उस तुझको हम (तथा) उस प्रकार (संविद्म) भली प्रकार से जानते हैं। (सः सः) वह तू हमें (दुःस्वप्न्यात्) (पाहि) दुःखप्रद स्वप्न की अवस्था या मृत्यु से बचा।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। १-६ (प्र०) विराड्गायत्री (५ प्र० भुरिक्, ६ प्र० स्वराड्) १ प्र० ६ मि० प्राजापत्या गायत्री, तृ०, ६ तृ० द्विपदासाम्नी बृहती। दशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥
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