अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
सीरा॑ युञ्जन्ति क॒वयो॑ यु॒गा वि त॑न्वते॒ पृथ॑क्। धीरा॑ दे॒वेषु॑ सुम्न॒यौ ॥
स्वर सहित पद पाठसीरा॑ । यु॒ञ्ज॒न्ति॒ । क॒वय॑: । यु॒गा । वि । त॒न्व॒ते॒ । पृथ॑क् । धीरा॑: । दे॒वेषु॑ । सु॒म्न॒ऽयौ ॥१७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक्। धीरा देवेषु सुम्नयौ ॥
स्वर रहित पद पाठसीरा । युञ्जन्ति । कवय: । युगा । वि । तन्वते । पृथक् । धीरा: । देवेषु । सुम्नऽयौ ॥१७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
विषय - कृषि और अध्यात्म योग का उपदेश ।
भावार्थ -
कृषिविद्या के उपदेश के साथ २ योग द्वारा ब्रह्मप्राप्ति का उपदेश करते हैं। (देवेषु) विद्वान् पुरुषों में (सुम्न्यौ) सुख के प्राप्त करने वाले आत्मारूप क्षेत्र में (कवयः) विद्वान् दूरदर्शी लोग (सीराः) प्राणरूप हलों को (युञ्जन्ति) युक्त करते हैं और (धीराः) धीर बुद्धिमान् पुरुष (युगा) योग के अङ्गोंरूप जुओं को (पृथक्) पृथक् २ (वि तन्वते) प्राणरूप बैलों के कन्धों पर रखते हैं अर्थात् उनका पृथक् २ अभ्यास करते हैं । उसी प्रकार हे पुरुषो ! तुम भी करो ।
महर्षि दयानन्द ने योग समाधिपक्ष में इस प्रकार लगाया है—(कवयः) विद्वान्, क्रान्तदर्शी, क्रान्तप्रज्ञ और (धीराः) ध्यान वाले योगी जन (पृथक्) अलग २ (सीराः) योगाभ्यास द्वारा ब्रह्म की उपासना करने के लिये सीरा=नाडियों में अपने चित्त को लगाते हैं अर्थात् परमात्मा का ज्ञान करने का यत्न करते हैं । और जो (युगा) योगयुक्त कर्मों को (वितन्वते) करते हैं वे (देवेषु) विद्वान् जनों में (सुम्नया) सुख से रह कर परमानन्द को प्राप्त करते हैं । (देखो ऋग्वेदादिभाष्य, उपासना-विषय)
अथवा—जिस प्रकार किसान सीर अर्थात् हलों को जोतते और पृथक् २ बैलों पर जुआ लगाते हैं, धीर लोग सीराः प्राणों को योगाभ्यास से वश करते हैं और पृथक उनपर योग की क्रियाओं का अभ्यास करते हैं । और वे धीर=ध्यानी जन (देवेषु) इन्द्रिय गणों पर सुम्नयु=सुख को प्राप्त कराने वाली सुषुम्ना नाड़ी में भी योगाभ्यास करते हैं।
शतपथ में इन मन्त्रों की अध्यात्म व्याख्या करते हुए यह विशेष लिखा है—“सवा आत्मानमेव वि कृपति। एतद्वा अस्मिन् देवाः संस्करिष्यन्तः पुरस्तात्प्राणान् अदधुः तथैवाऽस्मिन्नयमेतत् संस्करिष्यन् पुरस्तात्प्राणान् दधाति । लेखा भवन्ति लेखासु हि इमे प्राणाः। ” फलतः—आत्मा ही क्षेत्र है उसमें प्राण ही लेखा है जो उनकी नाना वृत्तियों द्वारा उसमें पृथक् २ वर्त्तमान है। वे जोड़े हैं, दो नाक, दो कान, दो आंख, प्राण-अपान, व्यान, उदान। इन सब देवों में सुम्नयु=सुख के संचारकरूप आत्मा में ही धीर पुरुष अपनी समस्त चित्तवृत्ति का निरोध अर्थात् योग करते हैं ।
टिप्पणी -
(वृ०) ‘सुम्नया’ इति ऋ०, यजु०। ऋग्वेदे (१,२) अनयोर्बुधः सौम्य ऋषिः । विश्वेदेवा ऋत्विजो वा देवताः। तत्रैव (३-९) एतासां वामदेव ऋषिः । शुनासीरौ सीता च देवता ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः सीता देवता । १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुभः । ३ पथ्या-पंक्तिः । ७ विराट् पुरोष्णिक् । ८, निचृत् । ३, ४, ६ अनुष्टुभः । नवर्चं सूक्तम् ॥
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