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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - विश्वे देवाः, चन्द्रमाः, इन्द्रः छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - अजरक्षत्र

    संशि॑तं म इ॒दं ब्रह्म॒ संशि॑तं वी॒र्यं बल॑म्। संशि॑तं क्ष॒त्रम॒जर॑मस्तु जि॒ष्णुर्येषा॑मस्मि पु॒रोहि॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽशि॑तम् । मे॒ । इ॒दम् । ब्रह्म॑ । सम्ऽशि॑तम् । वी॒र्य᳡म् । बल॑म् । सम्ऽशि॑तम् । क्ष॒त्रम् । अ॒जर॑म् । अ॒स्तु॒ । जि॒ष्णु: । येषा॑म् । अस्मि॑ । पु॒र:ऽहि॑त:॥१९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संशितं म इदं ब्रह्म संशितं वीर्यं बलम्। संशितं क्षत्रमजरमस्तु जिष्णुर्येषामस्मि पुरोहितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽशितम् । मे । इदम् । ब्रह्म । सम्ऽशितम् । वीर्यम् । बलम् । सम्ऽशितम् । क्षत्रम् । अजरम् । अस्तु । जिष्णु: । येषाम् । अस्मि । पुर:ऽहित:॥१९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 19; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    पर राष्ट्र की सेना के विजय करने के उपदेश के साथ २ भीतरी अन्तःकरण के योग-विघातक अन्तराय, काम क्रोधादि के विजय का उपदेश करते हैं । राष्ट्र के पुरोहित के कर्त्तव्य बतलाते हैं । (मे) मुझ राष्ट्र के पुरोहित का (इदं) यह (ब्रह्म) वेद, विज्ञान, ब्रह्मचर्य और ब्राह्मणत्व, (संशितम् अस्तु) भली प्रकार बलवान् और सामर्थ्यवान् रहे और (वीर्य बलम्) मेरे राष्ट्र का वीर्य = वीरों के योग्य बल भी (संशितम् अस्तु) खूब प्रबल, तीक्ष्ण और असह्य हो। जिन राष्ट्रवासी राजवंशों का मैं (जिष्णुः पुरोहितः) ऐहिक और पार-लौकिक कार्यों में सदा विजयशील पुरोहित आचार्य (अस्मि) हूं उन क्षत्रियों का (क्षत्रम्) क्षात्रबल, सेनाबल औौर तेज भी (संशितम्) खूब तीक्ष्ण, उम्र और (अजरम् अस्तु) कभी नष्ट न होने वाला रहे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः। विश्वेदेवा उत चन्द्रमा उतेन्दो देवता । पथ्याबृहती । ३ भुरिग् बृहती, व्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुप् ककुम्मतीगर्भातिजगती। ७ विराडास्तारपंक्तिः । ८ पथ्यापंक्तिः। २, ४, ५ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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