अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सुक्त
ह॑स्तिवर्च॒सं प्र॑थतां बृ॒हद्यशो॒ अदि॑त्या॒ यत्त॒न्वः॑ संब॒भूव॑। तत्स॑र्वे॒ सम॑दु॒र्मह्य॑मे॒तद्विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः स॒जोषाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठह॒स्ति॒ऽव॒र्च॒सम् । प्र॒थ॒ता॒म् । बृ॒हत् । यश॑: । अदि॑त्या: । यत् । त॒न्व᳡: । स॒म्ऽब॒भूव॑ । तत् । सर्वे॑ । सम् । अ॒दु॒: । मह्य॑म् । ए॒तत् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अदि॑ति: । रा॒ऽजोषा॑: ॥२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
हस्तिवर्चसं प्रथतां बृहद्यशो अदित्या यत्तन्वः संबभूव। तत्सर्वे समदुर्मह्यमेतद्विश्वे देवा अदितिः सजोषाः ॥
स्वर रहित पद पाठहस्तिऽवर्चसम् । प्रथताम् । बृहत् । यश: । अदित्या: । यत् । तन्व: । सम्ऽबभूव । तत् । सर्वे । सम् । अदु: । मह्यम् । एतत् । विश्वे । देवा: । अदिति: । राऽजोषा: ॥२२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
विषय - तेजस्वी होने की प्रार्थना ।
भावार्थ -
(हस्ति-वर्चसं) हस्त = मारने के साधन हथियारों से सम्पन्न अथवा हस्ती के समान बलवान्, शस्त्र-योद्धा, राजा और बलशाली सेनापति का ‘वर्चः’ तेज या हाथी के समान सर्वोपमर्दक बल या हाथियों की सेना का वैभव और (बृहत् यशः) बड़ा भारी यश (यत्) जो (अदितेः) न खंडित होने वाली अखण्ड और अदीन, स्वतन्त्र राष्ट्र प्रजा के (तन्वः) शरीर से (संबभूव) उत्पन्न हो वह (प्रथताम्) समस्त संसार में फैले । (सर्वे) सब ही (तत्) उस लोकयश और ख्याति को (मह्यम्) मुझ राष्ट्र-पालक के लिये (सम् अदुः) प्रदान करते हैं। और (विश्वेदेवाः) सर्व राष्ट्र के शासक गण और (अदितिः) स्वतन्त्र, अखंडित अधिकार वाली राष्ट्र प्रजा भी (स-जोषाः) सप्रेम मुझे वह यश और मान प्रदान करते हैं। राजा किस प्रकार अपना यश प्राप्त करे इसके उत्तर में वेद कहता है कि स्वतन्त्र स्वायत्त शासन और अधिकारप्राप्त प्रजा ही राजा के मान का कारण है । पराधीन पंगु प्रजा राजा के मान की वृद्धि नहीं कर सकती ।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘आदित्यायम्’ इति क्वचित् । (तृ०) ‘विश्वेदेवासः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वशिष्ठ ऋषिः । वर्चो देवता । बृहस्पतिरुत विश्वेदेवाः । १ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिपदा परानुष्टुप् विराड्जगती । ४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती । २, ५, ६ अनुष्टुभः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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