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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगु देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कामबाण सूक्त

    उ॑त्तु॒दस्त्वोत्तु॑दतु॒ मा धृ॑थाः॒ शय॑ने॒ स्वे। इषुः॒ काम॑स्य॒ या भी॒मा तया॑ विध्यामि त्वा हृ॒दि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽतु॒द: । त्वा॒ । उत् । तु॒द॒तु॒ । मा । धृ॒था॒: । शय॑ने । स्वे । इषु॑: । काम॑स्य । या । भी॒मा । तया॑ । वि॒ध्या॒मि॒ । त्वा॒ । हृ॒दि ॥२५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तुदस्त्वोत्तुदतु मा धृथाः शयने स्वे। इषुः कामस्य या भीमा तया विध्यामि त्वा हृदि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतुद: । त्वा । उत् । तुदतु । मा । धृथा: । शयने । स्वे । इषु: । कामस्य । या । भीमा । तया । विध्यामि । त्वा । हृदि ॥२५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    वास्तविक काम शक्ति के रहस्य का उपदेश करते हैं—हे स्त्री और पुरुषो ! (उत्-तुदः) जब उत्तम रूप से व्यथा देने या प्रेरणा करने वाला उत्तेजक काम (त्वा उत्-तुदतु) तुझे भली प्रकार व्यथा देता हैं तब (शयने स्वे) अपने सेज पर भी अपने सुख चैन से तुम (मा धृथाः) नहीं सो सकते। (कामस्य) पुत्रोत्पादन करने, आभ्यन्तर पुत्रैषणा रूप काम का (या भीमा इषुः) जो भयंकर कामना रूप बाण है (तया स्वा हृदि) उससे मैं पुरुष तुझ स्त्री के और स्त्री, पुरुष के हृदय को (विध्यामि) बींधती हूं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जयकामो भृगुऋषिः। मैत्रावरुणौ कामेषुश्च देवता। १-६ अनुष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥

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