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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यमिनी छन्दः - अतिशक्वरीगर्भा चतुष्पदातिजगती सूक्तम् - पशुपोषण सूक्त

    एकै॑कयै॒षा सृष्ट्या॒ सं ब॑भूव॒ यत्र॒ गा असृ॑जन्त भूत॒कृतो॑ वि॒श्वरू॑पाः। यत्र॑ वि॒जाय॑ते य॒मिन्य॑प॒र्तुः सा प॒शून्क्षि॑णाति रिफ॒ती रुश॑ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽएकया । ए॒षा । सृष्ट्या॑ । सम् । ब॒भू॒व॒ । यत्र॑ । गा: । असृ॑जन्त । भू॒त॒ऽकृत॑: । वि॒श्वऽरू॑पा: । यत्र॑ । वि॒ऽजाय॑ते । य॒मिनी॑ । अ॒प॒ऽऋ॒तु: । सा । प॒शून् । क्षि॒णा॒ति॒ । रि॒फ॒ती । रुश॑ती॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकैकयैषा सृष्ट्या सं बभूव यत्र गा असृजन्त भूतकृतो विश्वरूपाः। यत्र विजायते यमिन्यपर्तुः सा पशून्क्षिणाति रिफती रुशती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽएकया । एषा । सृष्ट्या । सम् । बभूव । यत्र । गा: । असृजन्त । भूतऽकृत: । विश्वऽरूपा: । यत्र । विऽजायते । यमिनी । अपऽऋतु: । सा । पशून् । क्षिणाति । रिफती । रुशती॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 1

    भावार्थ -

    (एकैकया) एक एक ही (सृष्ट्या) सृष्टि=सर्जन-व्यवस्था, रचना के नियम (Organisation) से (एषा) यह जगत् की रचना (संबभूव) एकत्र होकर बनी है। (यत्र) जिसमें (भूतकृतः) प्राणियों को उत्पन्न करने वाली (विश्वरूपाः) नाना प्रकार की (गाः) गतियां आश्रयरूप भूमियां, शक्तियां (असृजन्त) बनी हैं। (यत्र) और जहां (यमिनी) वह नियमकारिणी अथवा नियामक परमेश्वरी शक्ति, तत्स्थानीय राजशक्ति (अपर्तुः) विना नियत ऋतु अर्थात् उचित काल के (विजायते) विपरीत, एक दूसरे को विरोधी रूप में होने लगती हैं (सा) वह अव्यवस्था (पशून्) पशुओं को, जीवों को (रिफती) विनाश करती हुई, (रुशती) और मारती हुई, कष्ट देती हुई (क्षिणाति) उनका विध्वंस कर देती है। अथवा, जिस प्रकार बिना ऋतु के, बेमौसम (यमिनी) जोड़ा जनने वाली गाय विपरीत नियम से जोड़े बच्चे पैदा करती है वह पशुओं के विनाशसूचक होती है उसी प्रकार एक ही व्यवस्था जीवों को सुख देती, विरुद्ध या विपरीत अनवसर-व्यवस्था जीवों का नाश करती है। अथवा—एक परमात्मा से संगत एक प्रकृतिरूप (सृष्टि) सर्जन शक्तिः=‘प्रधान’ जब (सं बभूव) उचित रीति से व्यक्त रूप में प्रकट हुई तब (विश्वरूपाः) नानारूप धारण करने वाली (भूतकृतः) पञ्च भूतों को पैदा करने वाली (गाः असृजन्त) नाना विकृतियां बनीं (यत्र) जब (यमिनी) प्रकृति (अपर्तुः) ऋतु-सत्य ज्ञानस्वरूप ब्रह्म के ज्ञान या सत्यमय स्वभाव से शून्य होकर (विजायते) विपरीत—रजः तमः रूप में विकृत होती हैं तब (सा) वह (रिफती रुशती) राजस और तामस भावों से गर्भस्थ बालकों का नाश करती हुई (पशून् क्षिणोति) जीवों के विनाश का कारण होती है । अथवा – (एकाऽएकया एषा सृष्ट्या सं बभव) यह समस्त लोक प्रजावर्ग एक पुरुष, एक नर, इस प्रकार एक के साथ एक सृष्टि-सर्जन शक्ति के संयोग से उत्पन्न हुआ। (यत्र) जिस लोक में (विश्वरूपां भूतकृतः गाः असृजन्त) नाना प्रकार की गौएं, भूमियां, योनियां, माताएं, स्त्रियें जीव गर्भ-धारक क्षेत्र बनाये गये हैं। (सा यमिनी) जोड़ा बनी, अपनी नरशक्ति से, संगत मादा प्रकृति नारी, यदि (अपर्तुः) ऋतुकाल के बिना ही (यमिनी) दूसरी उत्पादक नरशक्ति पुरुष से संगत होकर (विजायते) विरुद्ध प्रजा उत्पन्न करे तो (सा) वह स्त्री (रिफती रुशती) हिंसाशील, क्रोधपरायण होकर (पशून् क्षिणाति) उन बीजरूप जीवों का नाश करती है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    पशुपोषणकामो ब्रह्मा ऋषिः। यमिनी देवता। १ अतिशाक्वरगर्भा चतुष्पदा अति-जगती, ४ यवमध्या विराट्-ककुप, ५ त्रिष्टुप्, ६ विराडगर्भा प्रस्तारपंक्तिः। २,३ अनुष्टुभौ। षडृर्चं सूक्तम्॥

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