Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
त्रि॒ते दे॒वा अ॑मृजतै॒तदेन॑स्त्रि॒त ए॑नन्मनु॒ष्येषु ममृजे। ततो॒ यदि॑ त्वा॒ ग्राहि॑रान॒शे तां ते॑ दे॒वा ब्रह्म॑णा नाशयन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒ते । दे॒वा: । अ॒मृ॒ज॒त॒ । ए॒तत् । एन॑: । त्रि॒त: । ए॒न॒त् । म॒नु॒ष्ये᳡षु । म॒मृ॒जे॒ । तत॑: । यदि॑। त्वा॒ । ग्राहि॑: । आ॒न॒शे । ताम् । ते॒ । दे॒वा: । ब्रह्म॑णा । ना॒श॒य॒न्तु॒ ॥११३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिते देवा अमृजतैतदेनस्त्रित एनन्मनुष्येषु ममृजे। ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिते । देवा: । अमृजत । एतत् । एन: । त्रित: । एनत् । मनुष्येषु । ममृजे । तत: । यदि। त्वा । ग्राहि: । आनशे । ताम् । ते । देवा: । ब्रह्मणा । नाशयन्तु ॥११३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 113; मन्त्र » 1
विषय - पाप अपराध का विवेचन और दण्ड।
भावार्थ -
पूर्व ज्येष्ठ भाई की हत्या के पाप की विवेचना करते हैं—(देवाः) विद्वान् व्यवहाराधिकारी शासक लोग (एतद् एनः) उस ज्येष्ठ भ्राता की हत्या के अपराध को (त्रिते) प्रथम उक्त तीनों व्यक्तियों—छोटा भाई, पिता और माता इन तीनों पर ही (अमृजत) लगाते हैं। (त्रितः) ये तीनों (एतत्) इस अपराध को (मनुष्येषु) अन्य मनुष्यों पर (ममृजे) लगाने का यत्न करते हैं। तो हे अपराधी ! (यदि) अगर (त्वा) तुझ पर (ग्राहिः आनशे) इस अपराध के कारण कैद आ जाय तो (तां) उस कैद को (ते देवा:) विद्वान् ब्राह्मण ब्रह्म-सत्य व्यवस्था के द्वारा ही (नाशयन्तु) दूर करें। अर्थात् वे ही यथार्थ अपराधी का पता लगा कर अपराधी को पकड़ें और निरपराधी लोगों को मुक्त करें।
टिप्पणी -
(तृ०) ‘ततो मायादि किंचिमानशे’ इति तै०ब्रा०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
अथर्वा ऋषिः। पूषा देवता। १,२ त्रिष्टुभौ। पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें