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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 119/ मन्त्र 1
सूक्त - कौशिक
देवता - वैश्वानरोऽग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
यददी॑व्यन्नृ॒णम॒हं कृ॒णोम्यदा॑स्यन्नग्न उ॒त सं॑गृ॒णामि॑। वै॑श्वान॒रो नो॑ अधि॒पा वसि॑ष्ठ॒ उदिन्न॑याति सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अदी॑व्यन् । ऋ॒णम् । अ॒हम् । कृ॒णोमि॑ । अदा॑स्यन् । अ॒ग्ने॒ । उ॒त । स॒म्ऽगृ॒णामि॑ । वै॒श्वा॒न॒र: । न॒: । अ॒धि॒ऽपा: । वसि॑ष्ठ: । उत् । इत् । न॒या॒ति॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् ॥११९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यददीव्यन्नृणमहं कृणोम्यदास्यन्नग्न उत संगृणामि। वैश्वानरो नो अधिपा वसिष्ठ उदिन्नयाति सुकृतस्य लोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अदीव्यन् । ऋणम् । अहम् । कृणोमि । अदास्यन् । अग्ने । उत । सम्ऽगृणामि । वैश्वानर: । न: । अधिऽपा: । वसिष्ठ: । उत् । इत् । नयाति । सुऽकृतस्य । लोकम् ॥११९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 119; मन्त्र » 1
विषय - ऋण और दोष का स्वीकार करना।
भावार्थ -
(अहं) मैं (यद्) जो (ऋणम्) ऋण (अदीव्यन्) जूआ खेले बिना या बिना व्यसन-क्रीड़ा किये अपने आप कर लूं (उत) और (अदास्यन्) उसको न चुका कर भी (सं गृणाभि) देने की प्रतिज्ञा कर लूं तो हे (अग्ने) राजन् ! तू (वैश्वानरः) सब पुरुषों का हितकारी (वसिष्ठः) सब में वास करने वाला सब के भीतर समान रूप से आदर प्राप्त, (अधि-पाः) सब का स्वामी, राजा होकर (नः) हमें (सु-कृतस्य) पुण्य के लोक में (इत्) ही (उत् नयाति) ऊपर उठा ले। अर्थात् यदि कोई ऋण के कारण कैद पड़ा हो और वह ऋण जुआखोरी आदि बुरे काम से न हुआ हो तो उसको ऋण दे देने की सत्य प्रतिज्ञा कराके पुनः निरपराध के समान मुक्त कर दिया जाय।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अनृणकामः। कौशिक ऋषिः। अग्निर्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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