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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 126

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 126/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - दुन्दुभिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - दुन्दुभि सूक्त

    उप॑ श्वासय पृथि॒वीमु॒त द्यां पु॑रु॒त्रा ते॑ वन्वतां॒ विष्ठि॑तं॒ जग॑त्। स दु॑न्दुभे स॒जूरिन्द्रे॑ण दे॒वैर्दू॒राद्दवी॑यो॒ अप॑ सेध॒ शत्रू॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । श्वा॒स॒य॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । पु॒रु॒ऽत्रा । ते॒ । व॒न्व॒ता॒म् । विऽस्थि॑तम् । जग॑त् । स: । दु॒न्दु॒भे॒ । स॒ऽजू: । इन्द्रे॑ण । दे॒वै: । दू॒रात् । दवी॑य: । अप॑ । से॒ध॒ । शत्रू॑न् ॥१२६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप श्वासय पृथिवीमुत द्यां पुरुत्रा ते वन्वतां विष्ठितं जगत्। स दुन्दुभे सजूरिन्द्रेण देवैर्दूराद्दवीयो अप सेध शत्रून् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । श्वासय । पृथिवीम् । उत । द्याम् । पुरुऽत्रा । ते । वन्वताम् । विऽस्थितम् । जगत् । स: । दुन्दुभे । सऽजू: । इन्द्रेण । देवै: । दूरात् । दवीय: । अप । सेध । शत्रून् ॥१२६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 126; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे दुन्दुभे ! तू (पृथिवीम् उप श्वासय) पृथिवी को जीवन, प्राण धारण करा, (उत द्याम्) और द्युलोक को भी प्राण धारण करा। (पुरुत्रा) नाना, बहुत से रूपों में (विष्ठितं) विद्यमान (जगत्) संसार (ते) तेरा (वन्वताम्) आश्रय ले। तू (इन्द्रेण सजूः) इन्द्र, आत्माके साथ सप्रेम होकर और (देवैः) देव, विद्वान् पुरुषों के साथ (सजूः) सहमत होकर (दूराद् दवीयः) दूर से दूर भी विद्यमान् शत्रु को (अपसेध) परे कर। जिस प्रकार नक्कारा या दुन्दुभि उच्च घोष से सब को सुनाई देता और राजा और भटों सहित दुःसाध्य शत्रु को भी पराजित करता है इसी प्रकार दुन्दुभि रूप परमेश्वर जो अपने नाद से पृथिवी और आकाश को गुजा रहा है, हमारे आत्मा और विद्वानों पर अनुग्रह कर हमारे दूरस्थ, अज्ञात शत्रु काम-क्रोध आदि को भी परे करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। १, २ भुरिक् त्रिष्टुभौ, ३ पुरोबृहती विराड् गर्भा त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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