Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 130/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - स्मरः
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - स्मर सूक्त
र॑थ॒जितां॑ राथजिते॒यीना॑मप्स॒रसा॑म॒यं स्म॒रः। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
स्वर सहित पद पाठर॒थ॒ऽजिता॑म् । रा॒थ॒ऽजि॒ते॒यीना॑म् । अ॒प्स॒रसा॑म् । अ॒यम् । स्म॒र: । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रथजितां राथजितेयीनामप्सरसामयं स्मरः। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥
स्वर रहित पद पाठरथऽजिताम् । राथऽजितेयीनाम् । अप्सरसाम् । अयम् । स्मर: । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 130; मन्त्र » 1
विषय - स्त्री पुरुषों का परस्पर प्रेम और स्मरण।
भावार्थ -
(रथजिताम्) रमण साधनों वा वेगों पर वश करने वाले पुरुषों और (राथजितेयीनाम्) रमण साधनों वा वेगों पर वश करने वाली (अप्सरसाम्) स्त्रियों को (अयं स्मरः) यह स्मर = परस्पर एक दूसरे को स्मरण कराने वाला सहज प्रेम उत्पन्न होता है। हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! आप लोग मेरी अभिलषित स्त्री के हृदय में (स्मरम् प्रहिणुत) उसी प्रेमवश स्मरण करने के भाव को उत्पन्न करो जिससे वह मेरी प्रियतमा वियोग काल में (माम् अनु शोचतु) मुझे ही याद करके दुःख अनुभव करे। वियुक्त होकर भी स्त्री पुरुष परस्पर प्रेमसम्बद्ध होकर एक दूसरे के गुणों का स्मरण करें और त्याग न किया करें। विद्वान् लोग उनको एक दूसरे के प्रति पतिव्रता पत्नीव्रत रहने का उपदेश किया करें। और यह परस्पर दृढ़ प्रेम उन स्त्री पुरुषों में ही उत्पन्न होता है जो एक दूसरे के वियोग में भी अपने रमणसाधन इन्द्रियों और कामवेगों पर वश करते हैं, अन्यथा वे काम में बह कर व्यभिचारी हो जाते और प्रेम को स्थिर नहीं रख सकते।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। २, ३ अनुष्टुभौ। १ विराट् पुरस्ताद बृहती। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें