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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 138

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 138/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - नितत्नीवनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - क्लीबत्व सूक्त

    त्वं वी॒रुधां॒ श्रेष्ठ॑तमाभिश्रु॒तास्यो॑षधे। इ॒मं मे॑ अ॒द्य पुरु॑षं क्ली॒बमो॑प॒शिनं॑ कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । वी॒रुधा॑म् । श्रेष्ठ॑ऽतमा । अ॒भि॒ऽश्रु॒ता । अ॒सि॒ । ओ॒ष॒धे॒ । इ॒मम् । मे॒ । अ॒द्य । पुरु॑षम् । क्ली॒बम् । ओ॒प॒शिन॑म् । कृ॒धि॒ ॥१३८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं वीरुधां श्रेष्ठतमाभिश्रुतास्योषधे। इमं मे अद्य पुरुषं क्लीबमोपशिनं कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । वीरुधाम् । श्रेष्ठऽतमा । अभिऽश्रुता । असि । ओषधे । इमम् । मे । अद्य । पुरुषम् । क्लीबम् । ओपशिनम् । कृधि ॥१३८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 138; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (ओषधे) ओषधे ! (त्वं) तू (वीरुधाम्) सब लताओं में से (श्रेष्ठतमा) सब से अधिक श्रेष्ठ, गुणकारी (अमि-श्रुता) प्रसिद्ध है। (अद्य) शीघ्र ही (इमम्) इस (मे) मुझे सताने वाले (पुरुषम्) व्यभिचारी पुरुष को (क्लीवम्) नपुंसक करे और (ओपशिनम्) हे न्यायाधीश ! इसे स्त्री के योग्य पोशाक से युक्त (कृषि) कर। अर्थात् व्यभिचारी पुरुष को स्त्री की पोशाक पहना कर भी लज्जित करना चाहिये। और व्यभिचारी यदि इस पर भी व्यभिचार न छोड़े तो उसे नपुंसक बना देना चाहिये।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - क्लीवकर्तुकामोऽथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-२ अनुष्टुभौ। ३ पथ्यापंक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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