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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 139

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 139/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा विराड्जगती सूक्तम् - सौभाग्यवर्धन सूक्त

    न्य॑स्ति॒का रु॑रोहिथ सुभगं॒कर॑णी॒ मम॑। श॒तं तव॑ प्रता॒नास्त्रय॑स्त्रिंशन्निता॒नाः। तया॑ सहस्रप॒र्ण्या हृद॑यं शोषयामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒ऽअ॒स्ति॒का । रु॒रो॒हि॒थ॒ । सु॒भ॒ग॒म्ऽकर॑णी । मम॑ । श॒तम् । तव॑ । प्र॒ऽता॒ना: । त्रय॑:ऽत्रिंशत् । नि॒ऽता॒ना: । तया॑ । स॒ह॒स्र॒ऽप॒र्ण्या । हृद॑यम् । शो॒ष॒या॒मि॒ । ते॒ ॥१३९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न्यस्तिका रुरोहिथ सुभगंकरणी मम। शतं तव प्रतानास्त्रयस्त्रिंशन्नितानाः। तया सहस्रपर्ण्या हृदयं शोषयामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निऽअस्तिका । रुरोहिथ । सुभगम्ऽकरणी । मम । शतम् । तव । प्रऽताना: । त्रय:ऽत्रिंशत् । निऽताना: । तया । सहस्रऽपर्ण्या । हृदयम् । शोषयामि । ते ॥१३९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 139; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे ओषधे ! तू (न्यस्तिका) सब गुणों को दूर करने वाली है, तू (मम) मेरा (सुभगं-करणी) सौभाग्य उत्पन्न करनेवाली होकर (रुरोहिथ) उत्पन्न होती है। (तव प्रतानाः) तेरे फैलाव (शतं) सौ और (त्रयस्त्रिंशत् नितानाः) नीचे मूल की तरफ़ की शाखाएँ ३३ हैं। (तया) उस (सहस्रपर्ण्या) हज़ारों पत्तों वाली औषधि से (ते हृदयं शोषयामि) हे स्त्रि ! प्रियतमे ! तेरे हृदय को सुखाता हूँ, वियोग से दुःख अनुभव करने वाला बनाता हूं। यह जीवनरूप लता है जिसके ३३ देव अर्थात् मानस दिव्यभाव वितान और शतवर्ष शत प्रतान हैं और सहस्त्रों कर्म, संकल्प विकल्प आदि सहस्र पर्ण हैं। जो दम्पती इस पर विचार करें तो वे इन सब जीवन के वर्षों और हृदय के भावों और दुनियां के सुख दुःखों के लिये अपना साथी चुनें और प्रेम से रह कर जीवन को सुखमय बनावें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् जगती। २-३ अनुष्टुभौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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