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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 103/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - ब्रहात्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - क्षत्रिय सूक्त
को अ॒स्या नो॑ द्रु॒होव॒द्यव॑त्या॒ उन्ने॑ष्यति क्ष॒त्रियो॒ वस्य॑ इ॒च्छन्। को य॒ज्ञका॑मः॒ क उ॒ पूर्ति॑कामः॒ को दे॒वेषु॑ वनुते दी॒र्घमायुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठक: । अ॒स्या: । न॒: । द्रु॒ह: । अ॒व॒द्यऽव॑त्या: । उत् । ने॒ष्य॒ति॒ । क्ष॒त्रिय॑: । वस्य॑: । इ॒च्छन् । क: । य॒ज्ञऽका॑म: । क: । ऊं॒ इति॑ । पूर्ति॑ऽकाम: । क: । दे॒वेषु॑ । व॒नु॒ते॒ । दी॒र्घम् । आयु॑: ॥१०८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
को अस्या नो द्रुहोवद्यवत्या उन्नेष्यति क्षत्रियो वस्य इच्छन्। को यज्ञकामः क उ पूर्तिकामः को देवेषु वनुते दीर्घमायुः ॥
स्वर रहित पद पाठक: । अस्या: । न: । द्रुह: । अवद्यऽवत्या: । उत् । नेष्यति । क्षत्रिय: । वस्य: । इच्छन् । क: । यज्ञऽकाम: । क: । ऊं इति । पूर्तिऽकाम: । क: । देवेषु । वनुते । दीर्घम् । आयु: ॥१०८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 103; मन्त्र » 1
विषय - प्रजापति ईश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
(कः) प्रजापति राजा और परमेश्वर वा कौन (क्षत्रियः) क्षत्रिय, बलवान् (वस्यः*) उत्तम फल की (इच्छन्) अभिलाषा करता हुआ (नः) हमें (अस्याः) इस अद्भुत (अवद्यवत्याः) निन्दा योग्य, घृणित (द्रुहः) पारस्परिक द्रोह से (उत् नेष्यति) ऊपर उठाएगा। ईश्वर या प्रजापति के सिवाय कौन दूसरा (यज्ञकामः) इस महान् यज्ञ को, जिसमें लक्षों जीव परस्पर संगति किये जा रहे हैं, चलाने की इच्छा करता है, और इस महाप्रभु के सिवाय (कः) कौन दूसरा है जो (पूर्तिकामः) इस समस्त संसाररूप यज्ञ को पूर्ण करने की अभिलाषा रखता है, और (कः) प्रजापति ईश्वर के सिवाय और कौन है जो (देवेषु) सूर्य, चन्द्र आदि दिव्य तेजोमय पदार्थों में विद्वान् तपस्वी पुरुषों में (दीर्घम्) दीर्घ (आयुः) जीवन को (वनुते) प्रदान करता है। इस प्रकार समस्त जीवों में प्रेमभाव उत्पन्न करके परस्पर के घातप्रतिघात को मिटाने वाला, जीव-संसार को हिंसा प्रतिहिंसा के भावों को हटाकर उन्नत करने वाला, संसार को चलाने हारा, पूर्ण करनेहारा और दीर्घ जीवन का दाता विश्व का आत्मा वही प्रभु है। इसी प्रकार प्रजाओं में परस्पर के झगड़े मिटाने वाला, एक दूसरे की प्रतिहिंसा के भाव को हटाकर उन्नत करनेवाला, राष्ट्रयज्ञ के चलाने और पूर्ण करने वाला, राष्ट्र का आत्मा, राजा प्रजापति है। शरीर में वीर्यवान् एवं कर्ता, आत्मा ही वैसा प्रजापति है।
टिप्पणी -
‘वस्यः बसीयः प्रशस्तं फलम्’ इति सायणः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। आत्मा देवता। त्रिष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
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