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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 105

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 105/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दिव्यवचन सूक्त

    अ॑प॒क्राम॒न्पौरु॑षेयाद्वृणा॒नो दैव्यं॒ वचः॑। प्रणी॑तीर॒भ्याव॑र्तस्व॒ विश्वे॑भिः॒ सखि॑भिः स॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प॒ऽक्राम॑न् । पौरु॑षेयात् । वृ॒णा॒न: । दैव्य॑म् । वच॑: । प्रऽनी॑ती: । अ॒भि॒ऽआव॑र्तस्व । विश्वे॑भ‍ि: । सखि॑ऽभि: । स॒ह ॥११०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपक्रामन्पौरुषेयाद्वृणानो दैव्यं वचः। प्रणीतीरभ्यावर्तस्व विश्वेभिः सखिभिः सह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपऽक्रामन् । पौरुषेयात् । वृणान: । दैव्यम् । वच: । प्रऽनीती: । अभिऽआवर्तस्व । विश्वेभ‍ि: । सखिऽभि: । सह ॥११०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 105; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (पौरुषेयाद्) पुरुषों या सामान्य लोगों की स्तुति और निन्दाओं की कथाओं से (अपक्रामन्) परे रहते हुए हे ज्ञानवान् साधक ! तू (दैव्यं) देव, परमेश्वर की (वचः) पवित्र वाणी वेद को (वृणानः) सबसे उत्कृष्ट रूप में स्वीकार कर अपने (विश्वेभिः) समस्त (सखिभिः) मित्रों सहित (प्रणीतीः) वेद के प्रतिपादित, उत्तम न्यायानुकुल मार्गों और सत् शिक्षाओं पर और वेद के आदेशों पर (अभि-आवर्त्तस्व) आचरण कर। गुरु उपनयन और समावर्त्तन के अवसरों पर अपने शिष्यों को इस मन्त्र का उपदेश किया करते थे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता आत्मा देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥

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