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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 113

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
    सूक्त - भार्गवः देवता - तृष्टिका छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    तृष्टि॑के॒ तृष्ट॑वन्दन॒ उद॒मूं छि॑न्धि तृष्टिके। यथा॑ कृ॒तद्वि॒ष्टासो॒ऽमुष्मै॑ शे॒प्याव॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तृष्टि॑के । तृष्ट॑ऽवन्दने । उत् । अ॒मूम् । छि॒न्धि॒ । तृ॒ष्टि॒के॒ । यथा॑ । कृ॒तऽद्वि॑ष्टा । अस॑: । अ॒मुष्मै॑ । शे॒प्याऽव॑ते ॥११८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तृष्टिके तृष्टवन्दन उदमूं छिन्धि तृष्टिके। यथा कृतद्विष्टासोऽमुष्मै शेप्यावते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तृष्टिके । तृष्टऽवन्दने । उत् । अमूम् । छिन्धि । तृष्टिके । यथा । कृतऽद्विष्टा । अस: । अमुष्मै । शेप्याऽवते ॥११८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 113; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (तृष्टिके*) कामतृष्णा से आतुर स्त्री ! हे (तृष्टवन्दने) कामातुर, तृष्णातुर पुरुषों को चाहने वाली, पुनः हे (तृष्टिके) धनतृष्णातु स्त्रि ! (यथा) जिस प्रकार से (शेष्यावते) भोग साधन युक्त वीर्यवान् अपने (अमुष्मै) अमुक = पति के लिये तू (कृत द्विष्टा) द्वेष किये (असः) बैठी है। तू अपनी तृष्णा के कारण ही (अमूं) अमुक पति पुरुष को (छिन्धि) विनाश कर रही है। अर्थात् स्त्री पुरुषों में काम-तृष्णा और धन-तृष्णा से ही परस्पर कलह उत्पन होते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भार्गव ऋषिः। तृष्टिका देवता। १ विराट् अनुष्टुप्। शङ्कुमती, चतुष्पदा भुरिक् उष्णिक्। द्वयृचं सूक्तम्॥

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