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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
यथा॒ सूर्यो॒ नक्ष॑त्राणामु॒द्यंस्तेजां॑स्याद॒दे। ए॒वा स्त्री॒णां च॑ पुं॒सां च॑ द्विष॒तां वर्च॒ आ द॑दे ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । सूर्य॑: । नक्ष॑त्राणाम् । उ॒त्ऽयन् । तेजां॑सि । आ॒ऽद॒दे । ए॒व । स्त्री॒णाम् । च॒ । पुं॒साम् । च॒ । द्वि॒ष॒ताम् । वर्च॑: । आ । द॒दे॒ ॥१४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा सूर्यो नक्षत्राणामुद्यंस्तेजांस्याददे। एवा स्त्रीणां च पुंसां च द्विषतां वर्च आ ददे ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । सूर्य: । नक्षत्राणाम् । उत्ऽयन् । तेजांसि । आऽददे । एव । स्त्रीणाम् । च । पुंसाम् । च । द्विषताम् । वर्च: । आ । ददे ॥१४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
विषय - शत्रु के दमन की साधना।
भावार्थ -
शत्रु व्यक्ति चाहे पुरुष हो चाहे स्त्री, वह उनको अपने सामर्थ्य से दबाने के लिये अपनी आत्मा की शक्ति इन विचारों से बढ़ावे। (यथा) जिस प्रकार (सूर्यः) सूर्य (उद्यन्) उदय होता हुआ (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों, तारों के (तेजांसि) प्रकाशों को (आददे) अपने में मिला कर लुप्त कर लेता है। (एवा) उसी प्रकार (द्विषताम्) द्वेष करने वाली (स्त्रीणाम्) स्त्रियों, (पुंसाम् च) और द्वेषी पुरुषों के (वर्चः) तेज को मैं (आ ददे) दबा लूं, अपने में मिलालूं। अपने से अधिक उनको न चमकने देकर स्वयं अधिक उज्जवल कीर्त्तिवाला ठोऊँ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - द्विषो वर्चोहर्त्तुकामोऽथर्वा ऋषिः। सोमो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। द्व्यृचं सूक्तम्।
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