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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
अ॒भि त्यं दे॒वं स॑वि॒तार॑मो॒ण्योः क॒विक्र॑तुम्। अर्चा॑मि स॒त्यस॑वं रत्न॒धाम॒भि प्रि॒यं म॒तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । त्यम् । दे॒वम् । स॒वि॒तार॑म् । ओ॒ण्यो᳡: । क॒विऽक्र॑तुम् । अर्चा॑मि । स॒त्यऽस॑वम् । र॒त्न॒ऽधाम् । अ॒भि । प्रि॒यम् । म॒तिम् ॥१५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्यं देवं सवितारमोण्योः कविक्रतुम्। अर्चामि सत्यसवं रत्नधामभि प्रियं मतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । त्यम् । देवम् । सवितारम् । ओण्यो: । कविऽक्रतुम् । अर्चामि । सत्यऽसवम् । रत्नऽधाम् । अभि । प्रियम् । मतिम् ॥१५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
विषय - ईश्वर की उपासना।
भावार्थ -
मैं (ओण्योः) रक्षा करने वाले माता पिताओं और संसार के रक्षक सूर्य और पृथिवी दोनों के (सवितारं) प्रेरक और उत्पादक, (कवि क्रतुम्) क्रान्तदर्शी ज्ञानवाले अथवा क्रान्तदर्शी मेघावी लोगों के ज्ञान से पहले सर्वातिशायी ज्ञान से सम्पन्न, तथा (सत्य-सवं) सत्य अर्थात् सत् प्रकृति से उत्पन्न समस्त जगत् को उत्पन्न करने वाले, (रत्नधाम्) रमण करने योग्य समस्त ज्ञान का एवं रमणीय जीवन में आनन्दजनक पदार्थों और सूर्य आदि लोकों को धारण पोषण करने वाले, (प्रियं) सब को प्रसन्न करने वाले, प्यारे (मतिम्) सब को मानने या मनन करने योग्य (त्यं देवं) उस प्रकाशमय अथवा परम देव की (अभि अर्चामि) सदा उपासना करूं, उसे प्राप्त करूं।
टिप्पणी -
‘मतिं कविम’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। सविता। १, २ अनुष्टुप् छन्दः। ३ त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
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