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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगुः
देवता - सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सविता प्रार्थना सूक्त
बृह॑स्पते॒ सवि॑तर्व॒र्धयै॑नं ज्यो॒तयै॑नं मह॒ते सौभ॑गाय। संशि॑तं चित्संत॒रं सं शि॑शाधि॒ विश्व॑ एन॒मनु॑ मदन्तु दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑स्पते । सवि॑त: । व॒र्धय॑ । ए॒न॒म् । ज्यो॒तय॑ । ए॒न॒म् । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय । सम्ऽशि॑तम् । चि॒त् । स॒म्ऽत॒रम् । सम् । शि॒शा॒धि॒ । विश्वे॑ । ए॒न॒म् । अनु॑ । म॒द॒न्तु॒ । दे॒वा: ॥१७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पते सवितर्वर्धयैनं ज्योतयैनं महते सौभगाय। संशितं चित्संतरं सं शिशाधि विश्व एनमनु मदन्तु देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पते । सवित: । वर्धय । एनम् । ज्योतय । एनम् । महते । सौभगाय । सम्ऽशितम् । चित् । सम्ऽतरम् । सम् । शिशाधि । विश्वे । एनम् । अनु । मदन्तु । देवा: ॥१७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
विषय - सौभाग्य की प्रार्थना।
भावार्थ -
हे (बृहस्पते) बृहती, वेदवाणी और बृहत् = विशाल लोकों के स्वामिन् ! (सवितः) सर्वोत्पादक परमेश्वर एवं आचार्य (एनं) इस व्रती ब्रह्मचारी पुरुष की आत्मा को (वर्धय) बढ़ा, शक्तिशाली बना और (एनं) इसे आत्मा को (महते) बड़े (सौभगाय) सौभाग्य, आत्मसम्पत्ति और विद्यासम्पत् प्राप्त करने के लिए (ज्योतय) ज्ञान से प्रकाशित कर। और (संशितं) अच्छी प्रकार तपस्या से सम्पन्न इस ब्रह्मचारी तपस्वी पुरुष को (सं तरं चित्) खूब ही अच्छी प्रकार (सं शिशाधि) शासन कर, शिक्षा दे। जिससे (विश्वे) समस्त (देवाः) ज्ञानी, विद्वान् पुरुष (एनम्) इस विद्वान् ब्रह्मचारी को देख कर (अनु मदन्तु) इसकी सफलता पर प्रसन्न हों। राजा अपने राष्ट्र में विद्वानों को इस प्रकार का आदेश करे। पिता, आचार्य से पुत्र के लिये प्रार्थना करे। आचार्य अपने शिष्य और यजमान के लिये ईश्वर से इसी प्रकार की प्रार्थना करे। इस प्रकार यह मन्त्र उभय पक्ष में लगता है।
टिप्पणी -
(तृ०) ‘सन्तराम्’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुर्ऋषिः। सविता देवता। त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्॥
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